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स्वतंत्र पत्रकारिता पर लोकतंत्र को बचाने जिम्मेदारी

दीपक तिवारी

लोकतंत्र और पत्रकारिता एक सिक्के के दो पहलू हैं। जिस देश में पत्रकारिता स्वतंत्र नहीं होती उस देश में लोकतंत्र भी ज्यादा दिनों का मेहमान नहीं रह सकता। दूसरे शब्दों में जिन देशों में लोकतंत्र समाप्त हो गया वहां पर स्वतंत्र पत्रकारिता भी समाप्त हो गई।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा की जब से पत्रकारिता का लोकतंत्रीकरण सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के माध्यम से हुआ है तब से लोकतंत्र और ज्यादा खतरे में पड़ता गया है।

आपको पढ़ने में यह बात थोड़ी अजीब जरूर लग सकती है लेकिन पिछले एक दशक का दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहां-जहां फेसबुक, व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पहुंचे हैं वहां-वहां अथॉरिटेरियन सत्ताएं या अधिनायकवाद पनपा है। इसके सबसे बड़े उदाहरण पूर्वी यूरोप, अरब के देश और पूर्वी एशिया के देश हैं।

आज तुर्की, अरब के कई मुल्कों, मलेशिया, म्यांमार जैसे देशों में लोकतंत्र फड़फड़ा रहा है। चीन और उत्तर कोरिया की तो बात ही क्यों की जाए। जहां लोकतंत्र, अब मुश्किल में है, ये वही देश हैं जहां पर अधिनायकवादी नेताओं और लोकतंत्र विरोधी राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया विशेष तौर से फेसबुक का इस्तेमाल करके समाज में ध्रुवीकरण किया। उसके बाद चुनावी लोकतंत्र के सहारे सत्ता पर अपनी जकड़ मजबूत कर ली।

मेरा मानना है कि भारत में भी पत्रकारिता का संक्रमण काल चल रहा है। आज जिस तरह से छोटी-छोटी सी बातों पर पत्रकारों के विरुद्ध देशद्रोह और आपराधिक मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। उससे हमारे संविधान की दी हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही खतरे में पड़ चुकी है। पिछले सालों में जिस तरह से मेनस्ट्रीम मीडिया, जिसमें एक-दो को छोड़कर सभी प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनल तथा अखबार शामिल हैं सरकार के प्रोपेगंडा का साधन बना है वह किसी भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।

लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनावों द्वारा सरकारों का चुना जाना और 5 साल तक उनके क्रियाकलापों तथा शासन को चुपचाप स्वीकार करना नहीं है। लोकतंत्र में चुनाव आयोग की भांति न्यायपालिका, पत्रकारिता और संवैधानिक संस्थाएं महत्वपूर्ण इंस्टिट्यूशन है जो लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखती है।

कल्पना कीजिए कि यदि न्यायपालिका जिसमें सुप्रीम-कोर्ट और हाई-कोर्ट शामिल है यदि सरकार की “हां में हां” मिलाते हुए उसके खिलाफ निर्णय देना बंद कर दें । मीडिया केवल सरकार की तारीफ लिखे। चुनाव आयोग सरकार के हिसाब से चुनाव करवाए। सूचना आयुक्त केवल वे सूचनाएं दे जो सरकार के हित में हों। लोकसेवा आयोग केवल उन लोगों को नौकरियां दे जिनको सरकार चाहती है। विश्वविद्यालय केवल वही पढ़ाई कराएं जो सरकारें चाहती हैं। महिला आयोग केवल वही मामले ले जिनमें सरकार को लाभ है। अधिकारी और कर्मचारी सरकार की हर बात को आंख बंद करके मानना चालू कर दें तो हममें और उत्तर कोरिया के किम जोंग या किसी भी डिक्टेटरशिप वाले देश में क्या अंतर रह जाएगा।

संवैधानिक संस्थाओं का अर्थ ही यह है कि यह सरकारों के अतिरेक पूर्ण निर्णय पर रोक लगाएं और एक आम नागरिक को सरकार के आतंक के सामने सुरक्षा दिलाएं। आपने कभी सोचा है कि यदि एक सरकारी अधिकारी या सत्ताधारी नेता से आपका झगड़ा होने पर “सरकार” के प्रकोप से आपको कौन बचाता है। वे न्यायालय ही हैं जो संवैधानिक संस्था कहलातीं है।

आज पत्रकारिता में जिस तरह की चुनौतियां है उसी का नतीजा है कि धीरे-धीरे सभी प्रमुख अखबार घराने सरकार के पिछलग्गू जैसे हो गए हैं। आज सरकार को आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से अपना प्रोपेगंडा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह कार्य खुशी-खुशी वे चैनल और अखबार करते हैं जो जानते हैं की उनका निर्वहन, एक्जिस्टेंस सरकार भरोसे है।

द्वितीय विश्व युद्ध के समय के प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार वेलकम मग़रीज, जो कलकत्ता में स्टेट्समैन अखबार के संपादक रहे और महात्मा गांधी के संपर्क में रहे कहा करते थे कि “सरकारें जिन बातों को छुपाना चाहती हैं, वही केवल खबर है। इसके अलावा बाकी सब पब्लिक रिलेशन और प्रोपेगंडा है”। मग़रीज के लेख स्टेट्समैन के साथ महात्मा गांधी के यंग इंडियन अखबार में भी छपते थे।

सरकारों की तारीफ करना पत्रकारिता नहीं है। सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाना, यह भी पत्रकारिता नहीं है। यह सब सरकारी प्रचार तंत्र, जिसे हम जनसंपर्क कहते हैं उसका काम है। पत्रकार का मूल काम ताकतवर लोगों से सवाल पूछना है। लोकतंत्र में यदि पत्रकारिता सवाल पूछना बंद कर देगी तो सरकारें निरंकुश हो जाएंगी। आपातकाल का उदाहरण हमारे देश में अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है।

हमारे देश के साथ ही बहुत सारे दुनिया के मुल्क आजाद हुए थे। पाकिस्तान, श्रीलंका, बर्मा इत्यादि उन देशों में स्वतंत्र पत्रकारिता की परंपरा चलाने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकार मौजूद नहीं थे। उन देशों के पास में हमारे देश के जैसा मजबूत संविधान भी नहीं था। इसलिए हम पाते हैं की इन देशों की आज जो दुर्गति है उसकी तुलना में भारत बहुत अच्छी स्थिति में है।

लेकिन यह स्थिति निरंतर कुछ वर्षों से खराब होती जा रही है। प्रेस फ्रीडम, मानव अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, महिला अधिकार, कमज़ोर लोगों पर अत्याचार, पारदर्शिता, एकेडमिक फ्रीडम, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अनेकों पैरामीटर में हमारी स्थिति बिगड़ती जा रही है। हम नीचे जा रहे हैं। ऐसे में स्वतन्त्र पत्रकारिता पर देश के लोकतंत्र का बड़ा दारोमदार है।

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