मध्यप्रदेश में चुनाव का मौसम है। नेता अपने पक्ष में वोटों की पैदावार बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ऊसर पड़ी ज़मीन को फिर जोतने आ गये हैं। जो सरकार बीस साल से चल रही है वह फिर लौट आने की लिप्सा से भरकर ग़रीब और असहाय मतदाता स्त्रियों को लाड़ली बहना कहकर पुकार रही है। उन्हें खजाने से मुफ़्त पैसे बांटे रही है। वे असहाय स्त्रियां शहरों और गांवों की बैंक शाखाओं में लम्बी कतार लगाये एक हज़ार रुपये लेने खड़ी हैं।
सुना है कि उन्हें इस राखी पर ढाई सौ रुपये और देने का वादा किया गया है। डोंडी पिट रही है — पैसे ले लो, वोट दे दो!… पैसे लो, वोट दो…. पैसे लो, वोट दो! ग़रीब-गुरवा अब तक समझ ही नहीं पाये हैं कि आखिर ये नेता — हमारे हैं कौन?
जो सरकार बीस वर्षों से हृदयप्रदेश में अभावग्रस्त नर-नारियों के दुख दूर नहीं कर सकी अब वह फिर चुनाव जीतने के लिए उन्हें जनहित के नाम पर मुफ़्त पैसे बांटती हुई ऐसी लग रही है जैसे अपने पक्ष में भरपूर वोटों की पैदावार बढ़ाने के लिए वोटरों को ‘अग्रिम समर्थन मूल्य’ ( M.S.P.) का भुगतान कर रही हो।
पिछले कई वर्षों से बाहर जो दल सत्ता में आने के लिए फिर तड़प रहा है वह भी झुग्गी बस्तियों में जाकर यह आश्वासन दे रहा है कि अगर वह सरकार बनाने में सफल हो जाये तो वह भी उन मतदाताओं को इससे भी ज़्यादा समर्थन मूल्य का हर महीने भुगतान करेगा जो उसके पक्ष में वोटों की पैदावार बढ़ायेंगे।
चुनाव से पहले जनहित के नाम पर खुलेआम राजकोष से इस वोट खरीदी अभियान को, वे संवैधानिक स्वायत्त संस्थाएं देख पा रही होंगी जिन्हें लोकतंत्र में चुनाव प्रणाली को नियमपूर्वक संचालित करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। सरकार में और सरकार से बाहर दोनों राजनीतिक दल इस वोट खरीदी के पापकर्म को पुण्य मानकर इसका ढोल पीट रहे हैं।
उनके चेहरों पर यह पछतावा ही नहीं झलक रहा कि आजादी के पचहत्तर सालों में उन्होंने लोकतंत्र को लोभतंत्र में बदल दिया है। लोकतंत्र के प्रति जनता के मन में स्वाभिमान जगाने के बजाय सभी राजनीतिक दलों ने उसे निरीह बनाकर रखा है। वे हर बार असहाय लोगों के मन को झूठे लालच से भरकर अपनी जीत सुनिश्चित किया करते हैं।
(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)