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क्या ‘थकी-हारी’ कांग्रेस की विजय का नया अध्याय लिख सकेंगे दिग्विजय?

जिस दौर में दिग्विजय सिंह कांग्रेस के अध्यक्ष बनने की ओर आगे बढ़े हैं वो पार्टी के लिए सबसे ज्यादा कठिन दौर है।

कांग्रेस पिछले एक दशक से जय-पराजय से बहुत दूर है। उसकी यात्रा ठहरी और ठिठकी-सी नजर आती है। किसी के लिए कांग्रेस ‘मरा हुआ हाथी’ है तो किसी के लिए कांग्रेस ‘वेंटिलेटर’ पर एक राजनीतिक दल। इस सबके बावजूद कांग्रेस है और कांग्रेस ही सत्तारूढ़ दल के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर गांधी परिवार से इतर एक सामंती पृष्ठभूमि के नेता का नाम शीर्ष पर उभरना कांग्रेस को एक नई दिग्विजय के लिए आश्वस्त करता है।

कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का नाम शीर्ष पर है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का जादू इस बार चला नहीं और वे कांग्रेस नेतृत्व को ब्लैकमेल करने के आरोपों से घिरकर खुद ही रणछोड़दास घोषित कर दिए गए। केरल के शशि थरूर का अध्यक्ष पद के लिए अभिनय भी थम चुका है। अब तय है कि गांधी परिवार ने अपने भरोसे के दिग्विजय सिंह को कांग्रेस का सारथी बनाने का निर्णय ले लिया है।

दिग्विजय सिंह के लिए उनके राजनीतिक जीवन की ये सचमुच एक दिग्विजय है। कांग्रेस का अध्यक्ष पद पाने के लिए दिग्विजय सिंह के राजनीतिक गुरु स्वर्गीय अर्जुन सिंह दूसरा जन्म नहीं ले पाए और पहले जन्म में वे कार्यकारी अध्यक्ष से आगे नहीं बढ़ पाए। वे कांग्रेस के बागी भी रहे और दागी भी लेकिन उन्होंने वापस कांग्रेस में आकर अपना लोक-परलोक सुधार लिया था। अपने पांच दशक के राजनीतिक जीवन में दिग्विजय सिंह ने मान-अपमान के अनेक दौर देखे लेकिन कांग्रेस से बगावत नहीं की और कांग्रेस के लिए बनाए गए रास्ते पर ही आगे बढ़े। प्रतिद्वंदियों ने उन्हें ‘बंटाधार’ कहा, किसी ने उन्हें ‘गैर गांधीवादी’ माना लेकिन दिग्विजय ने अपने आपको हमेशा कांग्रेसी और गांधीवादी माना भी और प्रमाणित भी किया।

राकेश अचल

जिस दौर में दिग्विजय सिंह कांग्रेस के अध्यक्ष बनने की ओर आगे बढ़े हैं वो पार्टी के लिए सबसे ज्यादा कठिन दौर है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को भाजपा ने ‘पप्पू’ घोषित कर रखा है, हालांकि वे भी लगातार आलोचनाओं और असफलताओं के बाद भी आज सड़कों पर हैं और उसी कांग्रेस के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिसे छोड़कर तमाम नेता या तो भाजपा की शरण में चले गए या दूसरे दलों की शरण में। राहुल ने अध्यक्ष पद न लेने की जिद नहीं छोड़ी लेकिन कांग्रेस को भी अकेला नहीं छोड़ा। भीड़ आज भी राहुल के पीछे खड़ी दिखाई दे रही है।

ऐसी मान्यता है कि गांधी परिवार पार्टी के अध्यक्ष पद पर एक ‘कठपुतली’ नेता चाहता है जो दिग्विजय सिंह के रूप में उन्हें मिल गया है। दिग्विजय सिंह को जानने वाले जानते हैं कि कांग्रेस में अकेले दिग्विजय ऐसे नेता हैं जो ‘कठपुतली’ बनने के बाद भी बोल सकते हैं। अपने मन से लय-ताल साध सकते हैं। कांग्रेस में जब गांधी परिवार पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं तब दिग्विजय ही ऐसे हैं जो बिना दिग्भ्रमित हुए पार्टी नेतृत्व के लिए ढाल बनते हैं। लड़ाई के हर मोर्चे पर सबसे आगे खड़े नजर आते हैं।

दिग्विजय सिंह को जितना मैं जानता हूं, उससे ज्यादा बहुत से लोग जानते होंगे। लेकिन मेरी धारणा है कि इस समय जब मोदी-शाह की तूती बोल रही है तब कांग्रेस के पास दिग्विजय सिंह के अलावा कोई दूसरा नेता है ही नहीं जो इस जोड़ी का मुकाबला उन्हीं के तरीके से कर सके। दिग्विजय सिंह भले पार्टी के लिए बंटाधार कहे और माने जाते हों लेकिन उनमें आज भी इतना साहस तो है कि वे ‘ईंट का जवाब पत्थर’ से दे सकें। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखर आलोचक रहे हैं। अदालतों में उन्होंने अपने बयानों की वजह से तमाम तारीखें झेली हैं लेकिन अपने कहे से पीछे नहीं हटे। मुझे लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर भी वे इसी मुद्रा में खड़े नजर आएंगे।

कांग्रेस को इस समय किसी सीताराम केसरी या देवकांत बरुआ की जरूरत नहीं है। कांग्रेस को एक ऐसा चेहरा चाहिए जो आक्रामक हो, जिसका व्यापक परिचय क्षेत्र हो और जो पार्टी को दोबारा ‘गियरअप’ करने के लिए देश के चारों कोनों में घूम सके। दिग्विजय को बालकवि बैरागी ने दिग्गी कहा था और तब से अब तक समय बहुत गुजर चुका है। दिग्गी नौवें दशक के दिग्गी नहीं रहे, वे नई सदी के दिग्गी हैं जो दिग्विजय का मतलब समझते हैं। कांग्रेस का अध्यक्ष बनने से उन्हें हासिल ही होना है। उनकी वजह से मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस को भी कुछ न कुछ जरूर हासिल होगा लेकिन जमीन खिसकेगी तो मौजूदा सत्तारूढ़ दल की।

दिग्विजय सिंह आत्ममुग्ध हैं, क्रूर हैं, निर्मम हैं, जिद्दी हैं, सनकी हैं लेकिन उनका आत्मविश्वास इन सबसे ऊपर है। मैंने उन्हें संकल्प के साथ एक दशक तक चुनावी राजनीति से दूर रहकर अपने आपको जीवित रखते देखा है। मैंने उन्हें खुद सामंत होते हुए सामंतवाद से भिड़ते हुए देखा है। भले ही वे खुद पक्के सामंत हों। उन्होंने अपने रास्ते के तमाम कांटे खुद निबेरे हैं। स्वर्गीय अर्जुन सिंह के जाने के बाद दिग्विजय सिंह अप्रासंगिक नहीं हुए, उनके राजनीतिक संन्यास के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में लौटी, उनकी वजह से ही कांग्रेस 18 महीने में सत्ताच्युत भी हो गई लेकिन उनका जुझारूपन जैसा कल था वैसा आज भी बरकरार है।

राजनीति में मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जिन्हें दिग्विजय सिंह ने मिट्टी में मिला दिया। वे खुद भी इन कोशिशों में लथपथ हुए लेकिन धूल झाड़कर खड़े भी हो गए। जैसे कौओं के कोसने से ढोर नहीं मरता वैसे ही विरोधियों के कोसने से दिग्विजय भी समाप्त नहीं हुए। दिग्विजय पुत्रमोह में फंसे नेता हो सकते हैं। चौथेपन में नया घर बसने का दुस्साहस करने वाले नेता हो सकते हैं इसलिए कांग्रेस के लिए भी एक कामयाब अध्यक्ष भी हो सकते हैं। मुमकिन है कि वे आने वाले दिनों में गांधी परिवार के लिए ही समस्या बन जाएं लेकिन कांग्रेस के लिए वे फायदेमंद साबित होंगे ये मेरा अपना आंकलन है।

दिग्विजय न कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह भागे और न गुलाम नबी आजाद की तरह। वे कपिल सिब्बल की तरह भी नहीं भागे, वे अर्जुन सिंह और नटवर सिंह की तरह भी अधीर नहीं हुए। इसलिए मुमकिन है कि दिग्विजय हारी-थकी परास्त दिखाई दे रही कांग्रेस के लिए विजय, दिग्विजय का नया अध्याय लिख सकें। दिग्विजय के सामने आने से कांग्रेस के एक गुट में खुशियां तो दूसरे में वैसा ही मातम भी है जैसा की भाजपा और दूसरे विपक्षी दलों में है। अब कहने के लिए ज्यादा नहीं है, देखने के लिए ही है, सो देखते जाइए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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