रूस-यूक्रेन युद्ध: क्या नींद में हैं हमारे भीतर बैठे गांधी और बुद्ध?
वरिष्ठ पत्रकार राकेश का रूस-यूक्रेन युद्ध में भारतीयों की भूमिका पर आलेख।
वास्तविकता और नारेबाजी में फर्क होता है और यही फर्क कभी-कभी परेशान कर देता है। दुनिया में इस समय कहीं न कहीं युद्ध होते ही रहते हैं। कभी सम्प्रभुता के नाम पर तो कभी विस्तारवाद के नाम पर,लेकिन इन युद्दों के खिलाफ दुनिया कमर कसकर खड़ी नहीं होती। कम से कम ऐसे में हमारा ‘वसुधैव कुटुंबकम ‘ का सिद्धांत तो सवालों के घेरे में खड़ा हो ही जाता है।
यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध के खिलाफ हमलावर रूस में ही हजारों लोगों को युद्ध का विरोध करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। ये खबर पुरसुकून है। कम से कम रूसी दियों के तले घुप्प अन्धेरा तो नहीं है। वहां युद्ध का विरोध करने वाले रीढ़दार कुछ लोग तो हैं, लेकिन पूरी दुनिया को अहिंसा और गांधीवाद का सबक सीखने वाले भारत जैसे विशाल देश में युद्ध के खिलाफ कोई सड़कों पर नहीं उतरा, क्योंकि ये हमारा अपना मामला नहीं है। जबकि इस युद्ध की विभीषका की आंच से सब तप रहे हैं।
चलिए मान लेते हैं कि एक देश के रूप में हमारी विदेश नीति हमें रूस और यूक्रेन के बीच में हस्तक्षेप करने से रोकती है किन्तु क्या एक विश्वगुरु होने के नाते भी हमें मौन रहना चाहिए ? सरकार का मौन नीतिगत विवशता हो सकती है किन्तु इस देश में क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो सड़क पर आकर इस युद्ध की खिलाफत कर सकें? क्या युद्ध सचमुच किसी देश का या दो देशों के बीच का मुद्दा है ? क्या किसी युद्ध का मनुष्यता से कोई लेना-देना नहीं है? यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध से भारत अप्रभावित नहीं है। भारत के हजारों बच्चों की जान इस युद्ध की वजह से खतरे में है। हमारे बच्चे वहां फंसे हुए हैं। हम उन्हें कैसे-कैसे स्वदेश वापस ला पा रहे हैं दुनिया देख रही है।
रूस हो या अमरीका हो या चीन हो,जब हमलावर की भूमिका में खड़े होते हैं तो मनुष्यता के अपराधी ही नजर आते हैं। युद्ध कि विभीषका भारत ने भी झेली है। भारत के लोगों को पता है कि युद्ध कितना भयावह होता है और कहाँ-कहाँ जाकर वार करता है। युद्ध से क्या-क्या नष्ट होता है और युद्ध के घाव कब तक हरे रहते हैं ? युद्ध सरकारों के लिए जरूरी होता है जनता के लिए नहीं। जनता तो दो पाटों के बीच में पिसती है। युद्ध जनता से पूछकर शुरू नहीं किये जाते युद्ध का अंत भी आसानी से नहीं होता लेकिन जहाँ जनता युद्ध के खिलाफ खड़ी होती है वहां ये उम्मीद बनी रहती है कि इस जनविरोधी कृत्य पर जल्द रोक लगेगी।
कोई 15 करोड़ की आबादी वाला रूस कोई पांच करोड़ की आबादी वाले यूक्रेन पर हावी है। बारूद और परमाणु के दम पर उसे झुका लेना चाहता है। मुमकिन है कि रूस के लिए अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युद्ध अवश्यम्भावी हो,किन्तु यूक्रेन के लिए तो ऐसा नहीं है। पूरी दुनिया के लिए युद्ध क्या अंतिम विकल्प नहीं है,नहीं हो सकता क्या? दुनिया में युद्धों का लंबा इतिहास है,लेकिन खून से लथपथ इस इतिहास में विनाश ही विनाश है।
आपको याद होगा कि कोई छह साल चले द्वितीय विश्व युद्ध में छह से सात करोड़ लोग मारे गए थे। भारतीय उपमहाद्वीप पर मुस्लिम आक्रांताओं के युद्ध में कोई आठ करोड़ लोग मारे गए। योरोप और अमरीका के बीच हुए युद्धों में भी असंख्य लोगों की जान गयी। कोई 200 साल में 13 करोड़ लोग युद्ध की भेंट चढ़ गए।
पिछले हजारों साल में दुनिया ने कोई 46 ऐसे बड़े युद्ध देखे हैं जो मनुष्यता के नाम पर कलंक हैं लेकिन आज भी युद्ध की विभीषका न कम हुई है और न समाप्त हुई है। बल्कि आज के युद्ध कल के युद्धों के मुकाबले और ज्यादा घातक हो गए हैं। अब युद्ध शारीरिक सौष्ठव और हथियारों से नहीं लड़े जाते। अब युद्ध में अणु और परमाणु शामिल हैं जो पलक झपकते ही सर्वनाश कर सकते हैं। जापान में हम इनका ट्रेलर देख चुके हैं। रूस और यूक्रेन के युद्ध में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की आशंका थी जो शायद अब टल गयी है, लेकिन युद्ध जारी है। ये युद्ध बंद होना चाहिए।
रूस की तरह ही यदि भारत में भी समझदार लोग युद्ध के खिलाफ सड़कों पर उतरे होते तो अच्छा लगता। इस विरोध से हमारी विदेश नीति पर कोई असर नहीं पड़ता,लेकिन हमारे भीतर बैठा बुद्ध और गांधी शायद नींद में है। या उसकी श्रवण शक्ति कम हो गयी है,या उसे धुंधला दिखाई देने लगा है या फिर देश चुनावों के मकड़जाल में ऐसा उलझ गया है कि उसे आस-पड़ौस के घटनाक्रम का कुछ पता ही नहीं है। युद्ध को लेकर हमारा संज्ञाशून्य होना निराश करता है जो जहां है उसे वहां से अपने तरीके से युद्ध का विरोध करना चाहिए। युद्ध के बादल हमारे सिर पर भी मंडराते ही रहते हैं किन्तु युद्ध हमेशा टाले जाना चाहिए वसुधा को पूरा कुटुमब मानने वालों के लिए पहल करना ही चाहिए युद्ध के विरोध की।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)