भारत जोड़ो यात्रा, जनता के बीच फिर भारत की खोज
जनमत की लूट का साधन बनता लोकतंत्र, केवल चुनाव जीतकर सत्ता पा लेने के खेल को समझे बिना भारत का भला नहीं हो सकेगा
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ एक बार फिर जनता के करीब जाकर भारत की खोज जैसी लग रही है। जो लोग कांग्रेस के इतिहास से परिचित हैं वे जानते हैं कि महात्मा गांधी के दक्षिण आफ्रिका से लौटने के पहले कांग्रेस ब्रिटिश हुकूमत से भारत के लोगों के कष्ट निवारण के लिए छोटी-मोटी अर्जियां लगाकर संघर्ष किया करती थी।
जब गांधी जी ने रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में बैठकर पूरा भारत घूमा और अच्छी तरह जान लिया कि भारत की जनता ग़ुलाम नहीं है, उसे तो ब्रिटिश राज्य ने उसकी खेती-किसानी और हुनरमंदगी में बेबस बनाकर रखा है। अगर जनता के साधन फिर जनता को लौटा दिए जायें तो वह स्वतंत्रतपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकती है। देश की समृद्धि में भागीदार बनी रह सकती है।
तभी तो गांधी जी ने जनता की इस बेबसी के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता संग्राम छेड़ने के लिए कांग्रेस को जनता का प्रबल प्रतिनिधि बनाने का बीड़ा उठाया। फिर कांग्रेस सद्भावपूर्ण सत्याग्रह और सविनय अवज्ञापूर्ण असहयोग के लिए पूरे देश का आत्मबल जगाने में समर्थ हुई और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सबका साथ निभाकर आज़ादी की मशाल लेकर चली।
कांग्रेस ने सद्भाव का सूत कातकर सबके साथ सबकी आज़ादी का वस्त्र बुना। जो लोग हिन्दू, मुसलमान और दलितों के प्रश्नों पर एकमत नहीं थे और अपने विशेषाधिकार चाहते थे, कांग्रेस ने उनसे संवाद करते हुए उन्हें अपने साथ लेकर चलने में कभी संकोच नहीं किया। वह सामाजिक अंधविश्वासों के तनावों का अपनी उदारता से ही सामना करती रही।
गांधी जी आज़ादी मिलने के पहले ही चेतावनी देते रहे कि अभी से हमारी तैयारी आज़ादी को संभाले रखने की होना चाहिए। पर आजादी के बाद भी हम अनेक समृद्ध प्रयत्नों के बावजूद दरिद्रता, छुआछूत और मतान्ध कट्टरता को पूरी तरह कहां दूर कर पाये हैं। अभी हाल के वर्षों में जो राजनीतिक नज़ारा पेश हुआ है, उसे देखकर लगता है कि बड़ी तेजी से दरिद्रता लौट रही है, भेदभाव बढ़ रहा है और मतान्ध कट्टरता सिर चढ़कर बोल रही है। भारतीय सनातन धर्मदृष्टि और समरस सामाजिक संरचना का बाज़ारू राजनीतिकीकरण किया जा रहा है। लोकतंत्र को जनमत की लूट का साधन बनाकर राजनीतिक सत्ता पाने की छलपूर्ण रणनीतियां बनायी जा रही हैं।
केवल चुनाव जीतकर सत्ता पा लेने के इस खेल को समझे बिना भारत का भला नहीं हो सकेगा। अगर कोई राजनीतिक दल लोकतंत्र को सत्ता पाने का बाज़ार समझकर एक बड़ी कंपनी की तरह चुनाव का व्यापार करने लगे और दूसरे राजनीतिक दलों के जनता से समर्थन पाने वाले प्रतिनिधि उस जनसमर्थन को शेयर की तरह उस बड़ी राजनीतिक कंपनी को बेचकर उसमें मर्ज होने लगें तो यह उसी तरह होगा जैसे बड़े पूंजीपति छोटी-छोटी पूंजियों को अपने कारोबार में समेटकर लोगों को असहाय बनाये रखते हैं।
इस समय भारत की राजनीति देश के लोगों के प्रति आर्थिक-सामाजिक न्याय को भूलकर व्यापक जीवन को विभेदकारी और असहाय बना रही है। ऐसे कठिन समय में हमें भारत के लोगों के हुनरमंद जीवन में भारत को खोजना होगा और उसे निर्भय बनाकर फिर अपने पांवों पर खड़ा करना होगा। राजनीतिक अन्याय के ख़िलाफ़ ऐसे स्थायी प्रतिपक्ष को संगठित करना होगा जो लोगों में सद्भावपूर्ण विकसित जीवन की स्मृति जगा सके। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ उसी कांग्रेस को जनता के पक्ष में फिर गढ़ती हुई जान पड़ती है जिसे ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन के लिए महात्मा गांधी ने गढ़ा था और जो पूरे देश की आवाज़ बन गयी थी।
(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)