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क्यों अब तक तय नहीं राजा भोज के ताल की हद, नीयत-सोच पर शक

पत्रकार अलीम बजमी का भोपाल के बड़े तालाब की हद बताने वाली मुनारे लगाने के काम में हीलाहवाली पर आलेख।

भोपाल को राजा भोज की सौगात। 11वीं शताब्दी पुराना बड़ा तालाब। शहर की लाइफ लाइन तो हमारा गुरूर भी। भोपालियों से जज्बाती रिश्ता। इसकी अठखेलियां करती लहरें सैलानियों को आकर्षित करती हैं। साथ ही शहर की खुशनसीबी को बयां करती हैं। इसने भोपाल में जर्रे को आफताब और आफताब को खाक में मिलते देखा है। तालाब की इठलाती मौजों के सीने में कई कहानियां है। परमार कालखंड से भोपाल स्टेट का संघ शासन में मर्जर इसने देखा तो यह यूका गैस कांड का भी गवाह है। इसकी आकृति छिपकली जैसी जरूर है लेकिन फितरत आकृति जैसी नहीं है।

भोपाल और सीहोर के बीच संधि स्थल के रूप में पहचान रखना वाला यह तालाब सैकड़ों लोगों की रोजी का भी जरिया है। भोपाल तो सदियों से इसका पानी पी रहा है। सीहोर में इसके पानी का इस्तेमाल कई किसान सिंचाई के लिए कर रहे हैं। दरअसल, तालाब का मौजूं, मुनारों को लेकर है। वैसे यह मामला 1970 से जिक्र में है, तब पहली बार तालाब किनारे मुनारें लगाए गए थे। बारिश से पहले नजूल और नगर निगम अमला सक्रिय हुआ लेकिन बारिश के नाम पर फिर निष्क्रिय हो गया।

बेशक मुनारें लगाएं, यह जरुरी है। इसके लिए भी जान लीजिए कि एनजीटी ने फटकारा है। तब नजूल और नगर निगम को मुनारें लगाने की याद आई। वैसे भी बीते पांच साल से मुनारें लगाने का ढोल खूब पीटा गया मगर हकीकत में बहुत कुछ ठोस नहीं करने का गिला और शिकवा है। स्थिति ये हैं कि अब तक तालाब की हद बताने वाली मुनारे लगाने का काम मुकम्मल नहीं हुआ। जो लगाई गई थीं, अब उनका पता नहीं हैं।

अलीम बजमी

तालाब का फुल टैंक लेवल आखिर उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में कहां तक है..? मुनारें लगाए जाने से यह जाहिर होता। लेकिन शक, नीयत और सोच पर है। ये लाजिमी भी है क्योंकि 1970 में कोहेफिजा इसके दायरे में था। अब वहां इमारतों का जंगल है। खानूगांव की बसाहट किसी से छिपी नहीं है। बरेला-बहेटा में भी तालाब के दायरे में बस्तियां बन गई। उधर, भैंसाखेड़ी, ईटखेड़ी, लाऊखेड़ी, कोलूखेड़ी, सूरज नगर वगैरह में तो तालाब के सीने पर खेती हो रही है।

पांच साल पहले इसे रोकने की खातिर नगर निगम ने मुनादी कराई। फिर जेसीबी चली और खड़ी फसल उखाड़ फेंका गया लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। अब भी कई रसूखदारों का तालाब की जमीन पर माले मुफ्त दिले बेरहम की तर्ज पर कब्जा है। खेती हो रही हैं। पानी में रसायन मिल रहा है। कीटनाशक के खतरे को हम भोपाली कैसे भूल सकते हैं। मिथाइल आईसो सायनाइड गैस का रिसाव भी सेविन पाउडर बनने के कारण यूका से हुआ था। इस वजह से भोपालियों के सीने में दर्द है।

जितना बड़ा तालाब, उतना बढ़ा पेट : बड़े तालाब में 361 वर्ग किमी के दायरे से पानी एकत्र होता है जबकि जल विस्तार क्षेत्र 31 वर्ग किमी. हैं। कहीं-कहीं तो 6 तो कहीं यह 11 मीटर तक गहरा है। 1666.80 फुल टैंक लेवल तक पानी पहुंचने पर इसमें 1160 लाख घनमीटर पानी जमा होता है। कोलांस और उलझावन नदी का पानी इसका मुख्य स्त्रोत है।

यह भी जान लीजिए: बड़े तालाब के नीचे बड़ी-बड़ी चट्टानें है। ये डेक्कन ट्रैप बेसाल्ट प्रकार की है। हजारों बरस पहले ज्वालामुखी का लावा बहने और ठंडा होने से अस्तित्व में आई।

अब थोड़ा फ्लैश बैक में चले: यह तो सबको मालूम है कि बड़े तालाब का निर्माण परमार वंश के राजा भोज ने कराया। इसके निर्माण की भी बुजुर्गों से एक कहानी सुनी है। एक बार राजा भोज चर्मरोग ग्रस्त हो गए। तब एक संत ने उन्हें सलाह दी कि 365 स्रोतों वाला बड़ा जलाशय बनाकर वह इसमें नहाएंगे तो सेहतमंद हो जाएंगे। संत की बात मानकर राजा भोज ने कर्मचारियों को इस बारे में हुक्म सुना दिया। तब बेतवा के मुहाने पर एक घाटी का पता लगने पर वहां जलाशय बनाने का फैसला हुआ मगर मसला 365 सरिताओं के पानी को लेकर अटक गया। तब कालिया नाम के एक गोंड ने पास ही में एक नदी होने के बारे में बताया। साथ ही यह भी जानकारी दी कि इसकी कई सहायक नदियां है। गणना होने पर संख्या सही मिली तो तालाब अस्तित्व में आ गया।

तब इस घाटी से करीब 32 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित एक अन्य नदी को बेतवा घाटी की ओर मोड़ने के लिए बांध बनाया गया। यह बांध भोपाल शहर के नजदीक भोजपुर में बना था। इन कोशिशों से बड़ा तालाब बनकर मुकम्मल हुआ। तब उसकाे भोजपाला के नाम से पुकारा गया। तब उसका दायरा 65,000 हेक्टेयर था। यह भोजपुर मंदिर से भोपाल तक फैला हुआ था। ऐसी किवदंती है कि राजा भोज तालाब में नहाने के बाद चर्मरोग से मुक्त हो गए थे।

चलते-चलते: हम भोपाली तालाब को पूर्वज की तरह मानते हैं और आप (नजूल, नगर निगम) डूबी हुई या उखाड़ ली गई मुनारों को तलाश तो नहीं कर सके। पानी-कीचड़, दलदल होने की बात कहकर वक्त निकाल रहे हैं जबकि अब साइंस और टेक्नोलॉजी का दौर है। टोडरमल के जमाने का जरीब का नुस्खा अब गुजरे जमाने की बात है। अब पुरानी पद्धति को छोड़कर आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करें ताकि हकीकत में पुरानी मुनारें और हद तो पता चलें।

(लेखक दैनिक भास्कर भोपाल में न्यूज़ एडिटर एडिटर हैं)

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