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सवाल राहुल गांधी का नहीं, हिंदुस्तान की आजादी का है

अगर हम राहुल गांधी के साथ खड़े होते हैं तो हम उनको नहीं, खुद को और अपने लोकतंत्र को ताकतवर बनाएंगे

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता छीन ली गई। उनका दोष यही था कि देश को चूना लगाकर भाग गए धोखेबाजों के नाम उन्होंने भरी सभा में पुकारे थे। देश के नामचीन चोरों को चोर कहना बड़ा भारी गुनाह साबित हुआ। अब इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या राहुल गांधी अगले 8 वर्ष तक चुनाव लड़ पाएंगे या नहीं। इस बात की भी समीक्षा हो रही है कि अदालत का फैसला सही था या नहीं, लोकसभा सचिवालय को इतनी जल्दी क्या थी, सदस्यता समाप्त करने की।

लेकिन यह असली सवाल नहीं है। यह सवाल व्यक्ति राहुल गांधी तक सीमित है। यह सवाल उस प्रवृत्ति तक नहीं जाते जिसके केंद्र में राहुल गांधी नाम का व्यक्ति है। उस प्रवृत्ति को समझने के लिए नए जमाने की तानाशाही और उसे लागू करने के अत्याधुनिक औजारों को गौर से देखना होगा। सारा खेल इस बात का है कि कोई भी तानाशाह, सत्ता हमेशा के लिए अपने हाथ में चाहता है और उसके लिए हर वह हथकंडा अपनाता है जिससे उसकी सत्ता मजबूत होती है और हर उस संस्था को कमजोर या बर्बाद कर देता है जो उसके साथ सत्ता की हिस्सेदारी करना चाहती है।

भारत में सत्ता पाने का सीधा माध्यम चुनाव में जीत हासिल करना होता है। इसलिए सबसे पहले जरूरत होती है कि चुनाव को प्रभावित किया जाए या यूं कहें उसे अपने कब्जे में लिया जाए। एक जटिल और बड़े समाज में किसी पार्टी के बारे में अपनी राय बनाने के लिए जनता बहुत हद तक मीडिया पर निर्भर होती है। इसलिए तानाशाह मीडिया को कुचल देता है या खरीद लेता है। और आगे चलकर वह मीडिया की परिभाषा ही बदल देता है और जयकारा लगाने वालों को ही लोग मीडिया समझने लगते हैं।

पीयूष बबेले

चुनाव प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण अंग चुनाव आयोग होता है। कहने को आज भी देश में चुनाव आयोग स्वतंत्र संस्था है। लेकिन उसके अध्यक्षों की नियुक्ति, सत्ता पक्ष शासित राज्यों में उसके तौर-तरीकों में बदलाव और विपक्षी दलों के प्रति उसका रवैया उसकी स्वतंत्रता की हकीकत को खुद ही जगजाहिर कर देता है। पहले राज्य के चुनाव से पहले बड़े पैमाने पर पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के तबादले करना निर्वाचन आयोग का एक प्रमुख कार्य बन गया था, अब यह कार्य अचानक ही कार्य सूची से बाहर जैसा महसूस होता है। विपक्ष की हर शिकायत को निर्वाचन आयोग इस तरह लेता है जैसे सत्ताधारी पार्टी की प्रतिक्रिया सुनाई दे रही हो। अगर एंपायर ही 2 टीमों में से एक टीम के बारे में ध्यान ना दे तो उसकी निष्पक्षता खुद-ब-खुद समझी जा सकती है।

अगर मीडिया और निर्वाचन आयोग की दीवार को पार करके कोई राजनीतिक दल सत्ताधारी पार्टी को हराकर सरकार बना लेता है तो केंद्रीय एजेंसियों के दबाव और उसके विधायकों की खरीद के संयुक्त अभियान से सरकार को गिराया जा सकता है। अगर यह भी संभव नहीं होता तो विपक्षी राज्य सरकार के मंत्रियों पर केंद्रीय जांच एजेंसियों को इस तरह बैठा दिया जाता है कि वह कोई काम ही ना कर सकें। अगर इतने से भी बात नहीं बनती तो विपक्ष के नेताओं को गैर जरूरी मुकदमों में फसाकर अयोग्य घोषित कराया जा सकता है।

यह सारे काम एकदम अलोकतांत्रिक होने के बावजूद कानून की तकनीकी परिभाषा के हिसाब से गैरकानूनी नहीं है। अगर गौर से देखा जाए तो लोकतंत्र का दमन करने के लिए यही हथकंडे पूरे देश में अपनाए जा रहे हैं। राहुल गांधी ना तो इसका पहला शिकार हैं और ना ही आखरी। लालू प्रसाद यादव, स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव, बहन मायावती, मोहम्मद आजम खान, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, हेमंत सोरेन, भूपेश बघेल, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, महबूबा मुफ्ती, ओमर अब्दुल्लाह, केएसआर सब के ऊपर थोड़े बहुत अंतर से यही हथकंडे अपनाए गए हैं। फर्क बस इतना है कि किसने अपना दामन किस हद तक बचा कर रखा है और उसकी राजनैतिक वजनदारी कितनी है।

निश्चित तौर पर राहुल गांधी इन सभी नेताओं में सबसे ज्यादा वजनदार है। वे इनकम टैक्स से नहीं डरे, सीबीआई से नहीं डरे, ईडी की 60 घंटे तक चली पूछताछ से नहीं डरे, एसपीजी सुरक्षा हटाए जाने से नहीं डरे, उनके खिलाफ वर्षों से चलाए जा रहे दुष्प्रचार अभियान से नहीं डरे, देश के सबसे बड़े धन्ना सेठ की तिजोरी से नहीं डरे, और तानाशाह से आंख में आंख मिलाकर संसद और सड़क पर उसका कच्चा चिट्ठा खोलने से नहीं डरे। इसलिए उन्हें रास्ते से हटाने के लिए अतिरिक्त मेहनत की जा रही है लेकिन असल बात तानाशाही से संघर्ष की है।

जब कोई तानाशाह गद्दी पर बैठता है, तो मीडिया, गोदी मीडिया बन जाता है, अदालत, कंगारू कोर्ट बन जाती है, संवैधानिक प्रक्रिया कांस्टीट्यूशनल हार्डबाल बन जाती हैं और पूरा लोकतांत्रिक ढांचा शरीर से लोकतांत्रिक दिखता है लेकिन उसकी प्रवृत्ति तानाशाही की हो जाती है। पुलिस चोर को नहीं पकड़ती, फरियादी को पकड़ती है। अदालत अपराधी को दंडित नहीं करती, फरियादी से सवाल करती है। न्याय की मूल भावना मर जाती है और प्रक्रिया ही कानून बन जाती है। जुल्म को न्याय की तरह प्रचारित किया जाता है।

इसे आसानी से समझना हो तो अफगानिस्तान में अमेरिका समर्थित सरकार के समय जो लोग सरकार चलाते थे और तालिबान को आतंकवादी मानते थे अब तालिबान के हाथ में सरकार आने पर तालिबान एकदम पाक साफ है। पुलिस अदालत संसद सब तालिबान के हाथ में है, तो जाहिर है कि जो लोग लोकतांत्रिक कहलाते थे, अब वही लोग देशद्रोही और अपराधी हो जाएंगे।

भारत में भी दुर्भाग्य से सत्ता ऐसे व्यक्तियों के हाथ में आ गई है, जिनका आजादी की लड़ाई, संविधान और लोकतंत्र के निर्माण में कोई योगदान नहीं रहा। इसके उलट उनके मातृ संगठन पर तीन बार देश विरोधी गतिविधियों के कारण प्रतिबंध लगाया जा चुका है। दुनिया के प्रतिष्ठित समाचार पत्र आज भी उन्हें दक्षिणपंथी सांप्रदायिक संगठन ही लिखते हैं। उसके शीर्ष नेताओं को लंबे समय तक अमेरिका जाने का वीजा इसलिए नहीं मिला क्योंकि उनके ऊपर एक धर्म विशेष के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के आरोप थे।

एक अन्य नेता तड़ीपार हुआ करते थे। बाकी नेताओं ने भी समय-समय पर लोकतंत्र विरोधी और समाज में वैमनस्य फैलाने वाले बयान दिए हैं। ऐसे लोगों को पद्म सम्मान से अलंकृत करते हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने अदालत से किया गया वादा ना निभाने के कारण सजा सुनाई थी। जिनके मात्र संगठन की मूल प्रतिज्ञाएं भारत के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान के विपरीत हैं। जिसके नेता संसद में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द को संविधान से हटाने की वकालत करते हैं। जिसके नेता राष्ट्रपिता के बारे में कूट रचित बातें फैलाने और अपमानजनक बातें कहने में गौरव महसूस करते हैं।

तो यह लड़ाई इस तरह की सत्ता और इस तरह के विपक्ष के बीच है। इस तरह की तानाशाही का मुकाबला चुनाव के जरिए नहीं किया जा सकता। क्योंकि चुनाव में तो तब हराया जा सकता है जब वाकई चुनाव हो। तानाशाही से तो वैसे ही लड़ना पड़ता है जैसे आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी कांग्रेस और क्रांतिकारी लड़ा करते थे। जनता के पास अब यह सोचने का विकल्प नहीं बचा है कि सत्ताधारी पार्टी को हराकर विपक्ष सत्ता में आ जाएगा, इससे हमें क्या लेना देना? यह सत्ता परिवर्तन के संघर्ष का पुराना समय नहीं है।

विपक्ष अगर ज्यादा कुचला जाएगा तो हम बराबर देखते हैं कि विपक्ष के बहुत से नेता सत्ता पक्ष से मिल जाते हैं। विपक्ष के नेताओं का यह पलायन विपक्ष के नेताओं के संकट को दूर कर देता है। लेकिन जनता का संकट दूर नहीं करता। लोकतंत्र का अर्थ है- जनता अपने मन का राजा चुन सके। जिस दिन तानाशाह विपक्ष को कुचल कर इस विकल्प की हत्या कर देता है, उस दिन जनता फिर से प्रजा बन जाती है। अपने मन का शासक चुनने का उसका अधिकार समाप्त हो जाता है। विपक्ष की समाप्ति के साथ ही सत्ताधारी व्यक्ति के ऊपर नैतिक और राजनीतिक दबाव बनाने की उसकी ताकत भी समाप्त हो जाती है।

तब वह सरकार से सवाल नहीं पूछ पाती। रोजगार, स्वास्थ्य, धर्म की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी, शोषण का विरोध, न्याय का अधिकार, समानता का अधिकार, यह सब चले जाते हैं। वह गुलामी में आ जाती है। उसके पास तानाशाह का जयकारा लगाने या फिर दंडित किए जाने का ही विकल्प बचता है। भारत लगभग इसी अवस्था की दहलीज पर पहुंच चुका है।

ऐसे में राहुल गांधी पहले, आखिरी और भरोसेमंद विकल्प हैं। अगर राहुल गांधी को सार्वजनिक जीवन से हटा दिया जाता है तो निश्चित तौर पर व्यक्तिगत रूप से उन्हें कुछ हानि होगी, लेकिन यह नुकसान भारत के 130 करोड़ लोगों को होने वाले नुकसान की तुलना में कुछ भी नहीं होगा। राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, अगर उन्हें प्रधानमंत्री बनने का इतना चस्का होता तो वे अब तक 10 साल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री हो चुके होते। अगर सत्ता पाना ही उनके लिए एकमात्र लक्ष्य होता तो वह बाकी बहुत से नेताओं की तरह सत्ताधारी दल से समझौता कर लेते। अगर उन्हें अपनी निजी संपत्ति बचानी होती तो विपक्ष के कई दूसरे नेताओं की तरह वह भी खामोश हो जाते। अगर उन्हें जेल का डर होता तो वे विदेश में जाकर बस जाते। और सबसे अच्छा विकल्प तो उनके पास यह होता कि वे राजनीति से संन्यास ले लेते और शांति से यहीं बैठकर लोकतंत्र की अंतिम यात्रा का नजारा देखते।

लेकिन राहुल गांधी ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं। उनके अंदर नेहरू, इंदिरा और राजीव का खून है। एक ऐसा खून जो जीते जी हिंदुस्तान की खिदमत करता है और मरते वक्त भी देश के लिए शहीद होता है। उनकी अंतरात्मा में महात्मा गांधी का वास है, जो हमेशा प्रेरित करती है कि डरो मत। सिर्फ अपने बारे में मत सोचो, बड़ी सी बड़ी ताकत के खिलाफ कमजोर से कमजोर आदमी को बराबरी से खड़ा करने के बारे में सोचो। और एक बराबरी भरी दुनिया की रचना करो। उनकी राजनीति और उनका खानदान, उन्हें समझौता करना नहीं, संघर्ष करना सिखाता है। षड्यंत्र करना नहीं, सेवा करना सिखाता है। सत्ता हथियाना नहीं, सबको शक्तिशाली बनाना सिखाता है।

राहुल गांधी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी जन संघर्ष के लिए एक तपस्वी नेता की आवश्यकता पड़ती है। दैवयोग से इस संघर्ष की घड़ी में देश की 130 करोड़ जनता को राहुल गांधी के रूप में वह नेता मिला हुआ है। अगर हमने राहुल गांधी के रूप में एक बहुत बड़ी लोकतांत्रिक संभावना को यूं ही जाया हो जाने दिया तो पता नहीं हिंदुस्तान को संगठित करने और उसका नेतृत्व करने के लिए नया नेता पाने में हमें कितने वर्ष लग जाएं। इसीलिए है यह समय राहुल की फिक्र करने का नहीं है, बल्कि अपनी फिक्र करने का है। अगर हम राहुल गांधी के साथ खड़े होते हैं तो हम उनको नहीं, खुद को और अपने लोकतंत्र को ताकतवर बनाएंगे। और लाखों वीरों की शहादत से जो आजादी हमारे पुरखों ने प्राप्त की थी उसे कायम रख पाएंगे। फैसला आपका है। वर्तमान और भविष्य भी आपका दांव पर लगा है।

(लेखक पत्रकार और मध्यप्रदेश कांग्रेस के सलाहकार हैं)

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