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18 मुख्यमंत्रियों के 18 किस्से : CM जो मुख्यमंत्री निवास को मानते थे अशुभ

मध्यप्रदेश के पांचवें और छठे मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र (Dwarka Prasad Mishra) जो भोपाल के सीएम हाउस को अशुभ मानते थे।

दीपक तिवारी

भोपाल (जोशहोश डेस्क) मध्यप्रदेश के पांचवें और छठे मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र (Dwarka Prasad Mishra) जो भोपाल के सीएम हाउस को अशुभ मानते थे। जोशहोश मीडिया की सीरीज ’18 मुख्यमंत्रियों के 18 किस्से’ में आप जान सकेंगे, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्रियों की अनसुनी कहानियां। आज पढ़िए मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र (Dwarka Prasad Mishra) के किस्से।

मध्यप्रदेश के दूसरे आम चुनाव 1962 में हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। 288 में से केवल 142 सीटें ही कांग्रेस जीत पाई। कैलाश नाश काटजू के चुनाव हार जाने पर 18 महीनों के लिए दूसरी बार खंडवा के भगवंतराव मंडलोई मुख्यमंत्री बने। अक्टूबर 1963 में कांग्रेस का कामराज प्लान आने के कारण मंडलोई को जाना पड़ा और काटजू को फिर से मध्यप्रदेश की कमान देने की तैयारी होने लगी। इस बीच में राजनीति में चाणक्य कहे जाने वाले द्व्रारका प्रसाद मिश्र (Dwarka Prasad Mishra) ने ऐसी बिसात बिछाई कि उन्हें 1963 में मुख्यमंत्री चुन लिया गया। द्व्रारका प्रसाद मिश्र का मुख्यमंत्री बनना मध्यप्रदेश में कांग्रेस के इतिहास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। द्व्रारका प्रसाद मिश्र पहले 30 सितंबर 1963 से 8 मार्च 1967 तक और फिर 8 मार्च 1967 से 12 मार्च 1969 तक।

मुख्यमंत्री किराए के बंगले में

सीएम बनने के बाद मिश्र उस समय जिस बंगले निशात मंजिल में श्यामला हिल्स पर रहते थे वह एक किराए का मकान था। यब बंगला आज भी अशोका लेकव्यू होटल के ऊपर स्थित है। मिश्र पहले और आखरी मुख्यमंत्री थे जो किसी प्राइवेट मकान में किराए पर रहे। उनके पूर्व जो मुख्यमंत्री थे, वे आईना बंगले में रहते थे जो आजकल व्हीआईपी गेस्ट हाउस है। आईना बंगले के बारे में यह धारणा हो गई थी वह बंगला शुभ नहीं है। क्योंकि इसके पहले जितने भी सीएम इस बंगले में रहे वह ज्यादा दिन सीएम नहीं रहे सके थे।

मध्यप्रदेश में द्व्रारका प्रसाद मिश्र (Dwarka Prasad Mishra) का समय एक लेंडमार्क युग के रूप में जाना जाता है। उनके समय के शासन-प्रशासन और राजनीति के किस्से आज भी वल्लभ भवन के गलियारों में 1980 तक सुने जा सकते थे। जब उनके अनुयायी अर्जुन सिंह 1980 में मुख्यमंत्री बने, तो उनकी कार्यशैली में सख्ती की कुछ झलक मिश्र के कार्यकाल से मिलती थी। भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा को भी मिश्र की शैली का मुख्यमंत्री माना गया। मुंह में हमेशा क्रेवन-ए सिगरेट दबाए, ब्रिज खेलने के शौकीन मिश्र हिंदुस्तान के ऐसे कुछ राजनीतिज्ञों में से थे जो अधिकारपूर्वक मनोविज्ञान, राजनीति शास्त्र, वेद, पुराण और कामसूत्र पर समान अधिकार से बात कर सकते थे।

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मिश्र ने नेहरू विरोध के चलते 1951 में कांग्रेस छोड़ दी थी और लगभग 12 वर्ष पार्टी से बाहर रहने के बाद जब वे वापस लौटे तो मुख्यमंत्री के रूप में। कांग्रेस छोड़ने के बाद द्व्रारका प्रसाद मिश्र ने भारतीय लोग कांग्रेस नाम की पार्टी भी बनाई। फिर 1952 में मिश्र ने जबलपुर, छिंदवाड़ा और नागपुर से चुनाव लड़ा और तीनों जगहों से हार गए। तीन जगह से एक साथ हारने का कीर्तिमान मिश्र के ही नाम है।

अक्खड़ स्वभाव की बानगी

मिश्र के अक्खड़ मिजाज के कारण ज्यादा लोग उनसे नहीं जुड़ते थे। किंतु उनके व्यक्तित्व का प्रभाव ऐसा था कि उन्हें नजर अंदाज भी नहीं कर पाता था। एक बार कटनी में साम्प्रादायिक दंगे हुए। मिश्र पुराने मध्यप्रांत के गृहमंत्री थे। मौलाना आजाद ने दिल्ली से तार भेजकर हिदायत दी कि उन्हें दंगे की रिपोर्ट तत्काल भेजी जाए। मिश्र तार देखते ही गुस्सा गए। मौलाना के संदेश के जवाब में उन्होंने सिर्फ इतना लिख भेजा कि ‘रिपोर्ट भारत सरकार के गृहमंत्री को भेज दी गई है। स्मरणार्थ निवेदन है आप शिक्षामंत्री हैं’। मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल और राज्यपाल मंगलदास पकवासा को जब इसकी जानकारी मिली तो मिश्र से यह कैफियत मांगी गई कि इतने बड़े नेता को इस तरह का कड़ा जवाब क्यों भेजा गया। मिश्र ने विनम्र लेकिन दृढ़ शब्दों में जवाब दिया- मौलाना का तार हमारी धर्म निरपेक्षता का अपमान था। क्या वे ही मुसलमान अल्पसंख्यकों के एकमात्र संरक्षक हैं।

इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया

मिश्र एक राजनीतिज्ञ के रूप में न केवल मध्यप्रदेश में लौहपुरूष के रूप में जाने गए, बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति पर भी अपनी गंभीर छाप छोड़ी। कैथरीन फ्रेंक ने इंदिरा द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी में लिखा- प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी न केवल कामराज की पसंद थी, बल्कि मध्यप्रदेश के शक्तिशाली मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र ने अन्य मुख्यमंत्रियों पर भी अपने प्रभावों का इस्तेमाल करते हुए आठ मुख्यमंत्रियों को मनाया। द्वारका प्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक द पोस्ट नेहरू एरा, पॉलिटिकल मेमोयर्स में लिखा- 11 जनवरी 1966 की सवेरे साढ़े पांच बजे थे, मेरा टेलीफोन बजा। सामने की लाइन पर इंदिरा गांधी थीं, जिन्होंने बताया कि रात को ताशकंद में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया है और मैं तत्काल दिल्ली पहुंच जाऊं। इसके बाद द्वारका प्रसाद मिश्र ने देश के सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की बैठक दिल्ली के मध्यप्रदेश भवन में बुलवाई। उसमें निर्णय लिया गया कि सभी मुख्यमंत्री इंदिरा गांधी को भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिष्ठित कराना चाहते हैं।

हसीना कांड

द्वारका प्रसाद मिश्र के राजनैतिक जीवन में कभी कोई भ्रष्ट्राचार का आरोप नहीं लगा पर जब-जब वे किसी महत्वपूर्ण पद पर आसीन होने को होते या कोई चुनाव लड़ते तब एक विवाद जरूर सामने आता था। यह विवाद मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास में हसीना कांड के नाम से जाना जाता है। बात सितंबर 1939 की है और किस्सा यह है कि द्वारका प्रसाद मिश्र का एक ड्राईवर था नाना नायडू। यह ड्राइवर थोड़ा बदमाश प्रवृत्ति का था, लेकिन मिश्र के खूब मुंह लगा था। अक्सर जब भी मिश्र को कोई महत्वपूर्ण कार्य होता तो इसी ड्राइवर को उसमें लगाया जाता था। एक दिन जबलपुर की बात है कि एक मुस्लिम महिला रोते-रोते पुलिस अधीक्षक के पास पहुंची और शिकायत की कि उसकी जवान बेटी 15 दिन से घर से गायब है। जैसे ही यह खबर अखबारों को मिली वैसे ही यह बड़ा मामला बन गया, क्योंकि उस महिला ने मिश्र के ड्राइवर पर अपहरण का संदेह जताया था। खूब अखबरबाजी हुई और इस मुद्दे को तूल देकर मिश्र के खिलाफ वातावरण तैयार कर दिया। जब मामला बहुत बढ़ा तो ड्राइवर नाना नायडू ने पुलिस के सामने लड़की के साथ सरेंडर कर दिया और बताया कि वह दोनों शादीशुदा हैं।

पचमढ़ी में पड़े थे विद्रोह के बीज

वह पचमढ़ी ही था, जहां मिश्र की सरकार के खिलाफ विद्रोह के बीच युवक कांग्रेस की एक सभा में द्व्रारका प्रसाद मिश्र के भाषण से पड़े, जिसमें उन्होंने राजमाता सिंधिया के बारे में एक टिप्पणी कर दी थी। उस वर्ष अर्जुन सिंह की अध्यक्षता वाली युवक कांग्रेस का सम्मेलन पचमढ़ी में हुआ था। इस सम्मेलन में भाषण के दौरान द्व्रारका प्रसाद मिश्र ने राजे-रजवाड़ों और सामंतो पर बोलना शुरू किया और कहा कि ये रजवाड़े कभी भी कांग्रेस के नहीं हो सकते, क्योंकि मूलतः ये लोग लोकतंत्र विरोधी है। चूंकि लोकतंत्र में हम किसी को मना नहीं कर सकते इसलिए हमें इन्हें पार्टी में लेना पड़ा। इनका भरोसा नहीं किया जा सकता। जब ऐसा कहा जा रहा था, तो राजमाता आगे की पंक्ति में बैठी थीं और सब लोग मुड़कर उनकी तरफ देखने लगे। महारानी उस समय मजाक का केंद्र बन गई। राजमाता को यह बहुत अपमानजनक लगा। राजमाता ने बाद में अपनी आत्मकथा में लिखा- मैंने तभी तय कर लिया कि मैं ये टिप्पणी हवा में नहीं जाने दूंगी।

राजमाता के लिए कभी खड़े नहीं हुए

मिश्र परंपरानुसार हमेशा महिलाओं का खड़े होकर अपने कक्ष में स्वागत करते थे इसलिए राजमाता को भी यही सम्मान मिलना चाहिए था। लेकिन मिश्र ने तय कर रखा था कि वे राजमाता के लिए बिलकुल खड़े नहीं होंगे। इसलिए जैसे ही घंटी बजाकर चपरासी को राजमाता को अंदर ऑफिस में लाने का संकेत दिया गया वैसे ही मिश्र अपनी कुर्सी से उठकर अंदर ऐंटी-चेम्बर में चले गये। राजमाता आई तो खाली ऑफिस की कुर्सी पर बैठ गई और इंतजार करने लगीं। कुछ ही सेकंड़ों में जब मिश्र ने कमरे में प्रवेश किया तो उठने की बारी राजमाता की थी।

[साभार- पुस्तक राजनीतिनामा मध्यप्रदेश]

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