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कुतर्कों-गालियों से भरता जा रहा देश का आकाश, बीच बहस में आज़ादी

आज़ादी के 75वें साल में भी संदेह क्यों होता रहता है कि आज़ादी मिली भी है कि नहीं?

देश की आज़ादी के पचहत्तरवें साल में भी हमें यह संदेह क्यों होता रहता है कि आज़ादी मिली भी है कि नहीं? देश का आकाश कुतर्कों और गालियों से भरता जा रहा है। किसी को जैसे फ़ुर्सत ही नहीं कि उन दिनों की हालत पर विचार करे जब महात्मा गांधी की बहुप्रकाशित उपस्थिति में हमारे नेता किन समस्याओं का सामना कर रहे थे और क्या उपाय खोज रहे थे कि जब ब्रिटिश हुक़ूमत भारत छोड़े तो हमारा लोकतंत्र कैसा हो।

पहली समस्या तो यह थी कि फिरंगियों ने किसानों और हुनरमंद कारीगरों को भयानक ग़रीबी में फांस रखा था। जिससे लाखों गांवों में बसा देश लाचारी और बेबसी में जीवन काटने को विवश था। नमक पर भी टेक्स चुकाना पड़ता था। आवाज़ उठाने पर कोड़े खाने पड़ते थे। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट भारत के जीवन को जाने-समझे बिना अपने एकाध लाख गोरे मुलाज़िमों के भरोसे मनमाना राजकाज चला रही थी। देश की बुनियादी शिक्षा को मिटा रही थी।

इसीलिए गांधी जी ने यह परिकल्पना पेश की कि जब अंग्रेज चले जायें तो देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय का ताना-बाना पंचायतों को मजबूत करके खड़ा किया जाये। पार्लियामेण्ट्री किस्म का राज्य केन्द्रीकृत होने से पूरे देश को अपनी मनमानी से ही हांकेगा। देश में पंचायतों की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था ही कारगर हो सकती है। जो हर गांव के जेठे-सयाने अनुभवी लोगों की हुआ करेगी। इससे हर व्यक्ति को अपने हुनर और कारीगरी से रोजी जुटाने में मदद मिलेगी। सबके साधन सबके पास बने रहेंगे।

दूसरी समस्या यह थी कि एक बड़े हिन्दू समाज में छुआछूत की भावना कुछ जातियों को अन्त्यज बनाये हुए थी। जबकि उसकी सनातन धर्म-दृष्टि सबको अपना आत्मज मानने की है। गांधी जी इस छुआछूत को हाथ में उग आयी छठवीं अंगुली की तरह देखते थे और मानते थे कि इसका आपरेशन सामाजिक उपचार से किया जाना चाहिए। उन्होंने अम्बेडकर जी को बार-बार यही समझाया कि हिन्दू समाज से दूर गये बिना हम समाज को ही छुआछूत के रोग को मिटाने के लिए जागरूक करें। पर आख़िरकार अन्त्यज मान ली गयी जातियों को उन्होंने बुद्ध के मार्ग से जोड़ लिया।

ध्रुव शुक्ल

अम्बेडकर जी बुद्ध के मार्ग को इसलिए अपना रहे थे क्योंकि वह भारत की ही सनातन धर्म-दृष्टि से ही एक नया संवाद था — जो मानता है कि जीवन में प्रत्यक्ष रूप से दुख दिखायी देता है और उसे दूर करने का उपाय है। अम्बेडकर जी की दृष्टि में यह उपाय राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय से हो सकता था हनुमान को दलित की उपाधि देकर, उनकी आरती गाकर नहीं। संविधान में कुछ समय के लिए आरक्षण के प्रावधान को परिभाषित भी किया है। जिसका दीर्घकालीन दुरुपयोग आज वोट बैंक के लिए तो हो रहा है पर पिछड़े हुए लोगों की हालत नहीं सुधर पा रही।

तीसरी समस्या यह थी कि मुसलमानों का नेतृत्व करने वाले नेतागण यह मानते थे कि उनकी जनसंख्या के आधार पर सत्ता में उनकी हिस्सेदारी तय की जाना चाहिए। यह तथ्य सही नहीं है कि जिन्ना साहब या सावरकर जी ने दो राष्ट्रों की चर्चा छेड़ी। वास्तविकता तो यह है कि 1930 में पहली बार यह चर्चा इलाहाबाद में मुस्लिम लीग के सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए इस्लाम के अध्येता और शाइर अल्लामा इक़बाल ने छेड़ी थी। इसका उल्लेख इतिहास में मिलता है। जिसके कारण हिन्दू-मुसलमानों के सबंध इतिहास के एक नये मोड़ पर आकर ठिठक गये। स्वार्थवश उनके अलग-अलग नेता और संगठन पैदा होने लगे और फिर देश विभाजन का सामना करना पड़ा। इसके परिणाम भी हम अपने पड़ोस में देखकर आज भी परेशान हैं और पड़ोसी भी सुखी नहीं है।

इसमें कोई शक़ नहीं कि उन दिनों किसी न किसी उकसावे पर दोनों ही आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। पर इतिहास गवाही देता है कि गांधी जी सहित सभी देशप्रेमी नेता सच्चे मन से यही कोशिश करते रहे कि दोनों को किसी बहकावे में आये बिना साथ रहना ही सीख लेना चाहिए। गांधी जी ने इस मैत्री को स्थापित करने के लिए कई बार अपने प्राण दांव पर लगाये। दोनों ने साथ रहना सीख भी लिया पर दोनों के मतान्ध नेताओं ने अब तक नहीं सीखा है और उन्हीं के कारण आज़ादी के अमृतकाल में भी अशांति बनी रहती है। जनता ही है जो कोई बड़ा नेता-सुधार कार्यक्रम चलाकर इस राजनीतिक प्रदूषण को दूर कर सकती है।

भारत छोड़ो आंदोलन में वे नेता कहां शामिल हुए जो अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले अपनी कौम और जाति के लिए अधिकार सुरक्षित कर लेना चाहते थे। पर गांधी जी ने उनका कभी अपमान नहीं किया बल्कि अवसर जुटाकर देश के पक्ष में उनसे हमेशा संवाद किया। भारत को उस सत्याग्रह की प्रयोगशाला बनाना चाहा जो इतिहास में दर्ज़ हिंसा और कौमी स्वार्थ के तथ्य को नकारकर देश और दुनिया के जीवन में अहिंसक प्रतिरोध की बुनियाद रख सके। जबकि उस समय के वाम और दक्षिणमार्गी नेता हिंसा की ही तरफ़दारी करते रहे। यही कारण है कि यह नींव पक्की नहीं हो पायी और उस पर बनी लोकतंत्र की इमारत कांपती रहती है।

गांधी जी भारत में बसे हिन्दू, मुसलमान और तमाम बहुविश्वासी जातियों को इस पृथ्वी पर समभाव का ऐसा शानदार उदाहरण बनाना चाहते थे जिसे दुनिया देख पाती और सीखती भी कि हिंसा और हुक़ूमत से कुछ भी हासिल नहीं होता। सबका जीवन जन्मजात स्वराजी है। जीवन से उसके साधन मत छीनो, वह बिना किसी हुक़ूमत के सबके साथ रहकर अपने स्वराज्य में जीने की व्यवस्था रच लेगा।

भारत में स्वतंत्रता का संघर्ष पूरी पृथ्वी पर जीवन गुजार रही मानवजाति के बीच उस भेदभाव की खाई को पूरने का पुरुषार्थ था जिसके बिना आदमी अपने जन्मजात स्वराज्य को नहीं पहचान सकता। वह एक ऐसा तज़ुर्बा था कि अगर उसे पूरे समर्पण और सामूहिक निष्ठा से आज़मा लिया जाता तो भारत और दुनिया की तस्वीर आज कुछ और ही होती। पर हमारा दुर्भाग्य है कि कुछ लोग ब्रिटिश हुक़ूमत से अपने-अपने स्वार्थ साधने में लगे रहे और गांधी जी को आंसू बहाने के लिए अकेला छोड़ दिया।

हम अपनी असलियत पर ग़ौर करें तो पायेंगे कि हम बहुराष्ट्रीय बाज़ार में अकेले होते जाने के मार्ग पर ही अग्रसर हैं और बहाने के लिए आंसू भी नहीं बचा पा रहे हैं। अब पचहत्तर साल बाद बीते समय के दोष खोजने और अपने पूर्वजों का अपमान करने से कुछ हासिल नहीं होगा। आज हम उस इक्कीसवीं सदी की देहरी पर खड़े हैं जहां से रास्ते को पहचानना ही मुश्किल हो रहा है। हमारे सामने फिर वही प्रश्न है कि हम कौन-सा रास्ता चुनें?

(लेखक- कवि, कथाकार और विचारक हैं)

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