“स्वतंत्रता का सच्चा अर्थ सिर्फ़ औपनिवेशिक राज से नहीं, बल्कि अज्ञान और निरक्षरता से स्वतंत्रता और विचारों की स्वतंत्रता है।”
- डॉ. हरि सिंह गौर (Dr. Harisingh Gaur)
हम सागर वालों के लिए ‘गौर जयंती’ (Dr. Harisingh Gaur Jayanti) दीवाली/ईद से कुछ कम नहीं है। और वर्ष 2020 तो और भी अतिरिक्त महत्वपूर्ण है क्यूँकि ये गौर बब्बा की 150वीं जयंती है। इस साल ये आयोजन Corona की guidelines को ध्यान में रखकर मनाया जाएगा। प्रशासन से इसकी अनुमति लेने के लिए भी शहर के नागरिकों को काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी लेकिन अंततः अनुमति मिल गयी। पिछले 50 वर्षों से जो सिलसिला बिना रुके चल रहा था वो इस साल भी जारी रहेगा। कुछ ऐसा ही है ये दिन सागरवासियों के लिए। और यह लाज़मी है क्योंकि इस तरह की शख़्सियत कोई दूसरी देखने को नहीं मिलती।
डॉ गौर- एक दानवीर, एक शिक्षाविद, एक दार्शनिक, एक साहित्यकार, एक विधिवेत्ता, भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, एक समाज सुधारक, एक राजनैतिज्ञ, एक प्रशासक और एक कंजूस।
बहुत सी किंवदंतियां हैं उनके कंजूस होने को लेकर, उनकी विद्वत्ता से कहीं ज़्यादा प्रचलित हैं उनके कंजूसी के क़िस्से।
कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार के दौरान वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रो. सुरेश आचार्य ने एक मज़ेदार किस्सा साझा किया था गौर साहब के गृह प्रवेश का-
“Model House (कुलपति निवास) का गृहप्रवेश मेरे पिता स्व. पंडित शादीलाल जी आचार्य ने कराया था। मेरे नाना काशीनाथ जी पाठक एक संस्कृत और ज्योतिष का महाविद्यालय चलाते थे। पिता जी उनके साथ पंडिताई करते थे और सागर दिवाकर पंचाँग का गणित भी वे किया करते थे। गौर साहब के गृहप्रवेश की ज़िम्मेदारी मेरे पिता जी को दी गयी।
स्व. एड. गोपीलाल श्रीवास्तव जी विश्वविद्यालय के तत्कालीन Rector थे, वे पिता जी के अच्छे यजमानों में से एक थे। उन्होंने कहा: “पण्डित जी! एक बात याद रखना कोई भी सामान फिके ना, गौर साहब विकट कंजूस हैं।”
जब प्रक्रिया पूरी हुई तब पिता जी ने पान का एक पत्ता, एक फूल और थोड़े से चावल बचा लिए थे। पूजा सम्पन्न होने के बाद उन्होंने पान के पत्ते पर चावल और फूल रखे और कहा पूजा सम्पन्न हुई, इसे यहाँ चढ़ा दीजिए। गौर साहब ने प्रसन्न होकर एक उँगली उठाई और कहा – “Oh good! Not even a single grain of rice is wasted.” और 11 रुपए का cheque पिता जी को दक्षिणा में दिया जो उन्होंने कभी cash नहीं कराया।
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लेकिन क्या वे वाकई कंजूस थे? यदि थे, तो 18 जुलाई 1946 में लगभग दो करोड़ रूपये अपनी निजी संपत्ति (व्यक्तिगत कमाई और पैत्रक मिलाकर) में से दान कर डॉक्टर सर हरिसिंह गौर ने सागर विश्वविद्यालय क्यों बनवाया! इसका जवाब मिला विश्वविद्यालय के दूसरे बैच के छात्र रहे वरिष्ठ संस्मरणकार और हिंदी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रो. कांतिकुमार जैन से हुई एक विस्तृत चर्चा के दौरान, जो मैं यहाँ ज्यों की त्यों साझा कर रहा हूँ-
“मैं 1948 में छात्र बनकर आया। मैं दर्शन परिषद का सचिव चुन लिया गया। शिव कुमार श्रीवास्तव अध्यक्ष थे और प्रोफेसर शिव शंकर रॉय सरंक्षक । मुझे यह दायित्व सौंपा गया कि विभाग की परिषद की अध्यक्षता के लिये कुलपति डॉ गौर को आमंत्रित करुँ। मैं शाम को 6 बजे उनके कक्ष में गया।वहाँ उनके साथ डॉ भवालकर और डॉ भट्टाचार्य थे। नीम अन्धेरा था,एक टिमटिमाता बल्ब जल रहा था। गर्मी हो रही थी। पंखा मरियल सा था। डॉ गौर ने पसीना पोंछने अपनी जेब से रुमाल निकाला तो एक छेद वाला तांबे का सिक्का गिर गया। वे सिक्के अंग्रेजों ने चलवाये थे तांबा बचाने के लिये। शाम हो रही थी लोग घर जाना चाहते थे पर हरि सिंह गौर उसे ढूंढने में तल्लीन हो गये। टेबल-क्लॉथ खंगाले जा रहे थे,कालीन पलटाये जा रहे थे। पर्दे हिलाए जा रहे थे। नहीं मिला। भवालकर साहब ने एक चतुराई की और अपनी जेब से एक सिक्का गिरा दिया और बोले- “Sir !here it is,I found it “
गौर साहब बोले – “ No gentleman! This is not mine, mine was older one.”
सागर विश्व विद्यालय की स्थापना डॉ गौर ने एक-एक दमडी जोड़कर की। उनके मन में जो त्रास, जो दुख था सागर को लेकर वो वे भूल नहीं पाये। शनीचरी टौरी का वो घर, वो मां का चक्की पीसना वो भूल नहीं पाये।
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महानता महान उपार्जन से नहीं होती , महानता छोटे उपार्जनौं से होती है। डॉ गौर का वो कथन -THIS IS NOT MINE,MINE WAS OLDER ONE “, मैं कभी नहीं भूल सकता।
उनको लगा मैं जो दान दे रहा हूं सागर विश्व विद्यालय के लिये अगर एक पैसा कम हो गया तो क्या होगा। एक-एक दमडी का महत्व था उनके लिये। आज सागर जो भी है उसकी नींव में डॉ हरि सिंह गौर का त्याग था। सागर बीड़ी भान्जों का, ताँगे वालों का शहर था। मुझे याद है 1948 में जब मैं सागर आया तब सागर एक पिछड़ा कस्बा था। मैंने उन पर संस्मरण लिखा । वे कहते थे कि आप जो कमाते हैं उसका महत्व नहीं है,आप जो बचाते हैं उसका महत्व होता है।
संसार में बहुत हैं कुबेर बहुत हैं धनपति। लोग धनपतियों को याद नहीं करते। याद करते हैं उनकी जिन्होने अपना धन अपना वैभव जनता के हित में लगा दिया।“
लोग बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री [तब मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहते थे और तब मध्यप्रदेश नहीं था, प्रदेश का नाम था- Central Province (CP & Barar)] पंडित रविशंकर शुक्ल चाहते थे कि विश्वविद्यालय जबलपुर में बने चूंकि बड़ा शहर है, लेकिन डॉ. गौर अतिपिछड़े बुंदेलखंड के अतिपिछड़े शहर सागर के नाम पर अड़े रहे और यह तक कह दिया की भले ही सरकारी मदद ना मिले, विश्वविद्यालय तो सागर में ही बनेगा। वही सागर जहां स्याही तक नहीं मिलती थी। हालाँकि बाद में पंडित जी के हस्तक्षेप के बाद १८ जुलाई १९५६ को सागर में विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। १९४६ में विश्वविद्यालय बना, डॉ गौर उसके कुलपति बने और पदेन कुलाधिपति (Chancellor) बने पंडित रविशंकर शुक्ल। यहां दो बातें उल्लेखनीय हैं- पहली यह कि सागर पं. शुक्ला की भी जन्मभूमि है और दूसरी यह कि जब १९२३ में नागपुर विश्वविद्यालय बना तब पंडित जी उसकी Executive Council में थे और पहले कुलपति (Vice Chancellor) बने डॉ. गौर।
वरिष्ठ समाजसेवी सेठ दामोदरदास जैन गौर बब्बा को याद करते हुए बताते हैं कि विश्वविद्यालय कहाँ खोला जाए इसपर जब रायशुमारी हुई तो कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि शाहगढ़ में जो बैरक ख़ाली पड़े हैं उनमें विश्वविद्यालय खोललिया जावे। लेकिन गौर साहब का दिल-औ-दिमाग़ तो जैसे पथरिया हिल्स पर विश्वविद्यालय बनाने का निश्चय कर चुका था।
अपने जन्मस्थान के लिए शायद यही उनकी आदरांजलि थी, या शायद वो मलाल उन्हें रहा की Robertson College को सागर से जबलपुर स्थानांतरित कर दिया गया और उन जैसे छात्र को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा शिक्षा प्राप्त करने। और वे नहीं चाहते थे कि सागर के बेटे-बेटियाँ भी वो परेशनियाँ देखें।
सर गौर सन १९२२ में दिल्ली विश्वविद्यालय के भी पहले कुलपति बने। यानि गौर बब्बा दिल्ली, नागपुर और सागर विश्वविद्यालय के पहले कुलपति रहे। दिल्ली के मित्र बताते हैं कि यहां भी गौर जयंती मनाई जाती है।
यह भी एक सुखद संजोग है कि 26 नवंबर को ही भारत का संविधान बना था। डॉ गौर खुद एक विधीवेत्ता थे और संविधान सभा के सदस्य भी थे।
1919 में Goverment of India Act (जिसे मोंटेंग्यू- चेल्मस्फ़ोर्ड रिफोर्म भी कहते हैं) आया था जिसमें Central Legislative Assembly बनी और उसके उपसभापति बने डॉ गौर। ब्रिटिश सरकार हर दस साल में ब्रिटिश-इंडिया के प्रशासनिक कानून की समीक्षा करती थी, इसके लिए जो आयोग 1929 में आना था वह 1927 में ही भेज दिया गया जिसे हम ‘Simon Commission’ के नाम से जानते हैं। भारत का संविधान बनाने जो आयोग बना उसमें एक भी भारतीय नहीं था। सभी दलों ने एक-सुर में साइमन-कमीशन का विरोध किया, कांग्रेस की अगुवाई कर रहे मोतीलाल नेहरू ने ‘नेहरु रिपोर्ट’ प्रस्तुत की और मुस्लिम लीग की तरफ़ से आया जिन्ना का ’14Point Agenda’. फिर लॉर्ड इरविन ने All India Committe for Cooperation with Simon Commission, डॉ गौर भी उसके सद्स्य बने। इसी आयोग की सिफ़ारिश के बाद Government of India Act, 1935 आया। हमारे संविधान का एक बड़ा हिस्सा उसी से लिया गया है।
मेरे जैसे विधी के छात्र आज भी IPC की विभिन्न धाराओं पर उनकी टीकाएं पढ़ते हैं, हालांकि उनकी पुस्तक ‘Penal Law in India’ (Vol 1&2) और ‘Transfer Law in British India’ (Vol 1,2&3) अपने आप में कानून का एनसाइक्लोपीडिया हैं। हिन्दू कोड बिल नेहरू जी के अथक प्रयास के बाद सन 1956 में पारित हुआ था, लेकिन सर गौर ने ‘हिन्दू कोड’ पुस्तक सन 1919 में ही लिख दी थी। कानूनी लेखन के अतिरिक्त, वे एक मंझे साहित्यकार भी थे। वे Royal society for literature के सदस्य रहे और विपुल साहित्य भी उन्होंने रचा। ‘Random rhymes’ एवं ‘Stepping Westwards and others poems’ उनके काव्यसंग्रह हैं, ‘His only love’ उनका उपन्यास है, ‘Facts and fancies’ उनके निबंधों का संग्रह है। हालाँकि उनके साहित्य पक्ष पर कम ही चर्चा होती है।
कुछ समय पहले जस्टिस इंदू मल्होत्रा ‘Bar’ से ‘बेंच’ पंहुचने वाली प्रथम महिला बनी थीं। इस प्रक्रिया में इतने साल क्यों लग गए यह सवाल मुझे परेशान करता था। खोजने पर पता चला कि सन 1922 तक महिलाओं को भारत में वकालत करने का अधिकार नहीं था। 1923 में Nagpur Legislative Assembly में डॉ गौर के अथक प्रयास के बाद Legal Practitioner (Women) Act, 1923 पारित हुआ और महिलाओं को यह अधिकार मिला। ये बात दिलचस्प है कि तब डॉ गौर असेंबली में नेता विपक्ष थे। सन 1920 में गांधीजी से मतभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया था। 1921 में द्वारकाप्रसाद मिश्र से डॉ साहब चुनाव हार गए और फिर विधानपरिषद में मनोनीत किये गए। डी. पी. मिश्रा जो बाद में विश्वविद्यालय के कुलपति बने और म.प्र के मुख्यमंत्री भी। वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी अपनी पुस्तक राजनीति-नामा में लिखते हैं कि विश्वविद्यालय के आधुनिक स्वरूप में सबसे ज्यादा योगदान श्री मिश्र का ही है।
वही मिश्र जिन्होंने ग्वालियर में भरी सभा में राजमाता विजया राजे सिंधिया को अपमानित कर दिया, और वे कांग्रेस से अलग होकर जनसंघ से जुड़ गईं। यहां राजमाता का उल्लेख इसलिए ज़रूरी है क्योंकि उनका जन्म सागर के नेपाल पैलैस में हुआ था, वह संपत्ति उन्होंने विश्वविद्यालय को दान कर दी थी, जहां आजकल स्वर्ण जयंती सभागार स्थित है।
वरिष्ठ अधिवक्ता और विश्वविद्यालय के आरंभिक बैच के छात्र रहे श्री चतुर्भुज सिंह राजपूत कहते हैं – “हम आन, बान और शान की बातें करते नहीं थकते, लेकिन ज्ञान की बात नहीं करते। हमारी आन, बान, शान हमारे ज्ञान से ही है और युवाओं को चाहिए कि जिनके कारण हमें ज्ञान मिला उनके प्रति कृतज्ञता रखें।”
वाकई सागर ही नहीं, बुंदेलखंड ही नहीं, बल्कि पूरा प्रदेश और देश ऋणी रहेगा डॉ गौर का। मेरे पिता अक्सर कहते हैं कि यदि गौर साहब विश्वविद्यालय ना बनाते तो शायद मेरे जैसी सामान्य परिस्थिति का लड़का कभी पढ़-लिख नहीं पाता और शायद मैं ठेला चला रहा होता। मैं भी अपने आप को भाग्यशाली मानता हूँ कि उस महान विधिवेत्ता की जीवन भर की कमायी से बने विश्वविद्यालय के विधि विभाग (department of Law) से मैंने स्नातक उपाधि प्राप्त की।
गौर बब्बा का व्यक्तित्व इतना विराट है कि एक लेख में समेट पाना ‘गागर में सागर’ भरने जैसा है। इसलिए महामनीषी को उनकी जयंती पर याद करते हुए मैं नमन करके अपनी बात समाप्त करता हूँ उस नारे के साथ जो हम सागर वालों और सागर विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए सिर्फ़ एक नारा नहीं बल्कि एक जज़्बात है- “डॉक्टर गौर अमर रहें!”
वरुण प्रधान