Blog

यह विकृत अशोक स्तंभ अस्वीकार्य है श्रीमान!

नवनिर्मित शिल्प हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न की अनुकृति नहीं है तो इसे ठीक उसी रूप में संसद भवन के शीर्ष पर स्थापित करना उचित नहीं है।

नए संसद भवन की छत पर लगाये गये 6.5 मीटर लंबे और 9500 किलोग्राम वजनी कांस्य से निर्मित विशालकाय अशोक स्तंभ का आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनावरण किया। हम सभी जानते हैं कि अशोक स्तंभ हमारा राष्ट्रीय राजचिह्न है। यह मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक द्वारा सारनाथ में बनवाये गए स्तंभ की अनुकृति है, जिसे 26 जनवरी, 1950 को संविधान को अंगीकृत करते समय स्वीकृत किया गया था।

सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित मूल स्तंभ में शीर्ष पर चार सिंह हैं, जो एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए चारों दिशाओं में मुंह कर खड़े हैं। इसके नीचे घंटे के आकार के पद्म के ऊपर एक चित्र वल्लरी में एक हाथी, चौकड़ी भरता हुआ एक घोड़ा, एक सांड तथा एक सिंह की उभरी हुई मूर्तियां हैं, इनके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं। एक ही पत्थर को काट कर बनाए गए इस सिंह स्तंभ के ऊपर ‘धर्मचक्र’ रखा हुआ है जो भारत की शक्ति, साहस, गौरव और विश्वास को प्रदर्शित करता है।

श्याम सिंह रावत

सारनाथ संग्रहालय के मुख्य हॉल के मध्य रखा गया चार शेरों वाला भव्य स्तंभ एक ही पत्थर को काट कर बनाया गया है जो अपनी भव्यता, राजसी भाव, गरिमा और मूर्तिकला का एक अनुपम उदाहरण ही नहीं बल्कि अपने विलक्षण पॉलिश के लिए भी प्रसिद्ध है।

जबकि आज जिस राष्ट्रीय चिह्न के नाम पर चार शेरों वाले प्रतीक का प्रधानमंत्री जी ने अनावरण किया है, उसके शेरों के भाव और सारनाथ के मूल अशोक स्तंभ के शेरों के भाव अलग-अलग दिखाई देते हैं। उनकी अपेक्षा इन शेरों के मुंह भी अधिक खुले हैं और दांत अधिक लंबे हैं। इन शेरों के शरीर भी मूल स्तंभ के शेरों से अलग और बेडौल हैं।

मूल स्तंभ के शेरों जैसी गरिमा, भव्यता और सिंहत्व इस नए बने प्रतीक में नहीं है। इस प्रतीक को गढ़ने वाले मूर्तिकार अशोक स्तंभ सारनाथ के चार शेरों के भाव और कलात्मकता को समझ ही नहीं पाए तभी तो वे उस बारीकी को इस प्रतिमा में उतारने में असफल रहे। मूर्तिकला केवल पत्थरों, धातुओं, काष्ठ अथवा किसी अन्य वस्तु को तराशना या उसे गढ़ना ही नहीं होती, बल्कि वह प्रतिमा को एक प्रकार से सजीव और भावपूर्ण बना देना भी होता है।

राष्ट्रीय चिह्न को हूबहू उतारा जाना चाहिए, बिल्कुल उसी तरह जैसा कि संविधान ने उसे मान्यता दी है। इसीलिए इन्हें मूल स्वरूप की अनुकृति कहा जाता है। चूंकि यह नवनिर्मित मूर्ति शिल्प हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न की अनुकृति नहीं है तो इसे ठीक उसी रूप में संसद भवन के शीर्ष पर स्थापित करना उचित नहीं है, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्रीय चिह्नों के उपयोग को नियंत्रित और प्रतिबंधित करने का कार्य राज्य प्रतीक की भारतीय धारा, 2005 के तहत किया जाता है। राष्ट्रीय चिह्न के स्वरूप, हावभाव और उसके अनुपात में किसी भी तरह से परिवर्तन करना विकृतीकरण/विरूपण माना जाता है और ऐसा कृत्य दंडनीय अपराध है।

(श्याम सिंह रावत की FB वॉल से साभार)

Back to top button