बिरसा मुंडा: एक समग्र क्रांतिकारी, साधारण युवा से ‘भगवान’ तक
प्रो. श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी का जननायक बिरसा मुंडा की जयंती पर विशेष आलेख
छोटा नागपुर का क्षेत्र आदिवासियों का एक सघन क्षेत्र है। इसी क्षेत्र के एक किसान परिवार में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। आदिवासी जीवन स्वच्छंद और छल-छद्म से रहित था। इनके जीवन का आधार थे– जंगल, जमीन, जल और जंतु। परंतु शोषण की अमानवीय प्रक्रिया ने आदिवासी समुदाय की सामाजिक व्यवस्था को जर्जर कर दिया था। इस कठिन समय में इस धरती पर बिरसा मुंडा का आविर्भाव हुआ। शोषण से मुक्ति के लिए उन्होंने ‘उलगुलान’ का आंदोलन चलाया जो क्रमश: सामाजिक क्रांति का द्योतक बन गया।
इस शोषण प्रक्रिया के प्रमुख अत्याचारी ‘दिकु’ थे जो बाहर से आकर इस क्षेत्र की वन और धरती संपदा को हड़प लेना चाहते थे। ब्रिटिश शासन इनके साथ था। दिकु धीरे-धीरे जमींदार, ठेकेदार और जागीरदार बन गए। इस समय न्याय की आशा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। आदिवासियों के लिए समस्याएँ बढ़ती चली जा रही थीं। बिरसा मुंडा ने इन ज्वलंत समस्याओं को समझा और 25 वर्ष का एक युवा मात्र तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूद पड़ा। बिरसा के हृदय में यह अग्नि इतनी प्रज्वलित थी कि देखते ही देखते वह मुंडा समुदाय का हृदय-सम्राट बन गया।
बिरसा मुंडा केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे। उन्होंने अपने समाज को नए विचार दिए, अपनी एक उन्नतिशील विचारधारा दी तथा धार्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए लोगों को मार्ग बताए। अपने इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही आदिवासी समाज ने उन्हें ‘भगवान’ की संज्ञा दी। बिरसा वास्तव में जननायक थे। आज भी वे बीर बिरसा, धरती आबा (धरती पिता) और बिरसा भगवान के नाम से याद किये जाते हैं। बिरसा ने जो धार्मिक मत स्थापित किया, बिरसैत धर्म उसे आज भी कई लोग अंगीकार किए हुए हैं। यह धर्म सर्वसमावेशी है और उन्नत विचारों से पुष्ट है।
बिरसा मुंडा का सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण इतना प्रभावशाली था कि वे छोटा नागपुर के पूज्य व्यक्तित्व बन गए। गैर-आदिवासी समुदाय में भी उन्हें आदर मिला। प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास जंगल के दावेदार में बिरसा मुंडा की मानवीय संवेदना और क्रांतिदर्शिता, इन दोनों माध्यमों से आदिवासी शोषण और संघर्ष का प्रभावशाली प्रलेखीकरण किया है। इस उपन्यास में अनेक सरकारी रिपोर्टें दी गई हैं जिनसे यह पता चलता है कि वीर बिरसा ने अंग्रेज शासकों के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। वे अपने आदिवासी स्वभाव के साथ चले और आजीवन आदिवासी अस्मिता के लिए लड़ते रहे।
बिरसा मुंडा के समक्ष जनहित सर्वोपरि था। वे जो कुछ कहते थे उसका सीधा प्रभाव आदिवासी जन पर पड़ता था। उन्होंने जन-साधारण से कहा – महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना (ब्रिटिश महारानी का राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो)। बिरसा का यह उद्घोष ऐतिहासिक बन गया जिसकी तुलना सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के साथ सहज ही की जा सकती है।
बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन आदिवासियों के शोषण और उनकी अस्मिता पर प्रहार के विरोध में किया जानेवाला विद्रोह था। इस विद्रोह में बिरसा मुंडा कई धरातलों पर युद्धरत हुए। एक ओर उन्होंने आदिवासियों के परंपरागत सामाजिक ढाँचे में पैदा दरारों को भरने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर जमीन पर दिकुओं द्वारा किए जा रहे अवैध कब्जे का विरोध किया और तीसरी ओर लोलुप ठेकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का विरोध किया।
इस प्रकार छोटी सी आयु में ही बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के आर्थिक और सामाजिक शोषण की मुक्ति के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। एक विद्रोही नेता ही नहीं, वे आदिवासी समुदाय के पुनर्जागरण का प्रतीक बन चुके थे। उनके आंदोलन में धार्मिक सुधार और सामाजिक चेतना का सुंदर समन्वय है। बिरसा मुंडा आदिवासी संस्कृति की प्राचीन भव्यता को पुन: स्थापित करना चाहते थे। वे मुंडा धर्म की विशेषताओं को प्रचारित करना चाहते थे और जो लोग इन पर कुठाराघात कर रहे थे उन्हें चेतावनी देना चाहते थे। इस व्यापक दृष्टिकोण के कारण बिरसा आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला।
बिरसा मुंडा अपने लोगों को अत्याचारों से छुटकारा दिलाने के लिए बलिदानी रूप धर कर सामने आए। अपनी धार्मिक अस्मिता को अखंडित रखने के लिए उन्होंने धर्म उपदेशक का भी रूप धारण किया। उन्होंने यह देख लिया था कि शोषक वर्ग धर्म परिवर्तन को भी अपना औजार बना चुका है और यह भी जान लिया था कि उनके क्षेत्र की सभी जनजातियों को बड़ी संख्या में ईसाई धर्म स्वीकर करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इस संदर्भ में उनके इस कथन ने लोगों पर व्यापक प्रभाव डाला कि मिशनरियों और अंग्रेजों में कोई अंतर नहीं है।
बिरसा मुंडा की सामाजिक चेतना उन्हें पूज्य बनाती है। वे अपनी सामाजिक चेतना को सामाजिक सेवा के उत्कर्ष तक ले गए। वे नैतिकता के ह्रास के दुश्मन थे। सामाजिक बुराइयों को दूर करना चाहते थे। सांस्कृतिक और धार्मिक ढाँचे को पुनर्गठित करना चाहते थे। उनका सेवाभाव अतुलनीय था। गाँव-गाँव में जाकर उन्होंने अस्वस्थ लोगों की सेवा की। महामारी में चेचक फैलने पर उन्होंने पूरी लगन के साथ बीमारों की सेवा की।
बिरसा मुंडा की धार्मिक चेतना भी अतुलनीय है। उनके क्षेत्र में कबीर पंथियों का अस्तित्व था। स्वासी जाति के कुछ सदस्य वैष्णव धर्म का अनुसरण करते थे। बिरसा इससे प्रभावित हुए। वे ईसाई धर्म से भी कुछ समय तक संबद्ध रहे। मिशनरी भी गए। दोनों धर्मों की अच्छी बातों को ग्रहण किया। शीघ्र ही वे समझ गए कि पादरियों के उपदेश में भारत के प्रति विद्वेष का भाव है। जब उन्होंने इस बात की आलोचना की तो उन्हें विद्यालय और छात्रावास से निष्कासित कर दिया गया। इसी समय उन्होंने अपना महत्वपूर्ण वक्तव्य देते हुए कहा था – साहब, साहब एक टोपी हैं अर्थात मिशनरी और अंग्रेज एक ही हैं – भारतीयता के विरोधी। वैष्णव धर्म ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव डाला। जनजातीय सामूहिकता को बचाने के लिए वसुधैव कुटुंबकम की भावना में उनका विश्वास दृढ़ हो गया।
एक बार जब वे बंदगाँव पहुँचे तो उनका संपर्क आनंदपाण नामक व्यक्ति से हुआ जो वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। बिरसा को उनसे पौराणिक गाथाओं का ज्ञान मिला। रामायण और महाभारत से उन्हें संघर्ष की ऐसी शिक्षा मिली कि उन्होंने शासकों और जमींदारों के अत्याचारों के उन्मूलन को अपने जीवन की लक्ष्य बना लिया। इस अवधि में बिरसा शाकाहारी बन गए थे। उनमें आध्यात्मिक शक्ति आ गई थी। इस शक्ति से वे लोगों के रोग दूर करने लगे। लोग उनके पास आने लगे और उन्हें ‘भगवान’ कहा जाने लगा। वे जनता की निगाह में वैद्य भी थे और ईश्वर के रूप भी।
उधर शोषण और दमन का चक्र तीव्रतर होता जा रहा था। इसी समय नया जंगल कानून आ गया। आंदोलन भी तीव्र कर दिया गया। बिरसा का आंदोलन पहले अहिंसक था लेकिन उपदेशक और समाजसेवी के रूप में उनकी लोकप्रियता को देखकर शोषक विचलित हो गए। सन् 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। फिर यह क्रम चलता रहा। जनता उनके साथ थी। अदालत ने भी यह मान लिया कि बिरसा मुंडा केवल धार्मिक उपदेशक नहीं है, मुंडा आंदोलन के वे मुखिया हैं। बार-बार जेल जाने और वापस आकर आंदोलन को जीवित करने के कारण अब वे मुंडा जाति में मणि के रूप में चमकने लगे थे।
अपनी एक सभा में इस मुंडा सरदार ने सशस्त्र संघर्ष की घोषणा यह कहकर कर दी कि रहड़ की फसल अब बढ़ चुकी है और काटने का समय आ गया है। सशक्त क्रांति ने बल पकड़ा, सरकार के प्रतिष्ठानों पर सीधे हमले किए गए। रांची, खूंटी और शैलरकब की पहाड़ियाँ इसकी केंद्र बनीं। अंग्रेजों ने दमन करने की ठान ली। ‘बिरसैत’ कहलाने वाले बिरसा के अनुयायियों को यातनाएँ दी जाने लगीं। बिरसा मुंडा जंगलों में छिपे रहने लगे। पुलिस उन्हें गिरफ्तार न कर सकी। लेकिन बिरसा के ही कुछ अनुयायियों ने बिरसा पर घोषित रु. 500 के इनाम के लोभ में बिरसा को कैद करा दिया। बिरसा रांची ले जाए गए। तब वे एक महर्षि की तरह एकदम प्रसन्नचित्त ओर शांत थे।
30 मई, 1900 को बिरसा ने जेल में भोजन नहीं किया। वे अस्वस्थ हो गए थे। सात-आठ दिनों बाद उनकी हालत और बिगड़ गई। खून की उल्टी हुई और मूर्छावस्था में ही 9 जून, 1900 को क्रांति के इस महानायक की मृत्यु हो गई। स्वतंत्रता के बाद पुनर्जागरण के इस अग्रदूत को भारत सरकार ने उचित सम्मान प्रदान किया। 28 अगस्त, 1998 को भारत के संसद भवन परिसर में तत्कालीन राष्ट्रपति ने बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण किया और उन्हें असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी। इसके पूर्व 16 अक्तूबर, 1989 को संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में बिरसा मुंडा का चित्र लगाया गया और उन्हें प्रथम आदिवासी नेता कहकर आदर दिया गया। इसी वर्ष बिरसा मुंडा पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया है।
बिरसा मुंडा के व्यक्तित्व में भारतीय आत्मा का निवास था। उनका नाम लेते ही रोमांच हो आता है। वे एक समग्र क्रांतिदर्शी थे जो क्रांति और संघर्ष के मार्ग पर पुनर्जागरण, समाज सुधार, समाजसेवा, नैतिकता और आध्यात्मिक बल के उज्जवल दीप लेकर आगे बढ़े और एक साधारण युवा से ‘भगवान’ बन गए।
(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक (मप्र) के कुलपति हैं)