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लोकतंत्र के राम-रावण, जनता के पास रावण वध का सबसे बड़ा हथियार वोट

वोट के हथियार से कभी रावण मरता है और कभी झांसा देकर बच निकलता है। जब बच निकलता है तो कुछ ज्यादा आक्रामक हो जाता है।

लंकापति रावण कभी नहीं मरते। मरते तो फिर आज हजारों साल बाद भी उनके पुतले न फूंके जाते? मर्यादा पुरषोत्तम राम ने जिस रावण को मारा था, वो त्रेता का रावण था। कलियुग के रावण के बारे में शायद उन्हें पता भी न होगा। कलियुग में राम जंगलों में नहीं मंदिरों में हैं। मंदिर वाले राम कलियुग के रावण को आखिर कैसे मार सकते हैं? कलियुग के रावण को कलियुग के अस्त्र-शस्त्रों से मारा जा सकता है। कलिकाल में राम-रावण युद्ध पिछले 75 साल से जारी है।

कलियुग में राम और रावण की शिनाख्त बहुत आसान है। कलियुग में सत्ता रावण और विपक्ष राम की भूमिका में रहता है। भूमिकाएं बदलती रहतीं हैं। कभी राम के हाथ में सत्ता होती है तो कभी रावण के हाथ में .जनता हमेशा निहत्था होती होती है। जनता के पास रावण वध का सबसे बड़ा हथियार वोट होता है जिसे बेचारी हर पांच साल में आजमाती रहती है। इस वोट के हथियार से कभी रावण मरता है और कभी झांसा देकर बच निकलता है। जब बच निकलता है तो कुछ ज्यादा आक्रामक हो जाता है।

कलियुग के राम-रावण को आप अपनी दृष्टि से देखने के लिए परम स्वतंत्र हैं। आधी जनता जिसे रावण समझती है,बाक़ी जनता उसे राम मानती है। दोनों में एक ही फर्क होता है कि रावण हमेशा रथी होता है और राम बिरथ। दरअसल रथ बहुत मंहगा आता है। रथ वही खरीद सकता है जो सत्ता में होता है। जो विपक्ष में होता है उसे पैंयां-पैंयां सड़कें नापना पड़तीं हैं लेकिन रावण हमेशा रथ यात्री ही होता है, उसे पैदल चलने में दिक्क्त होती है। इज्जत का सवाल भी होता है।
त्रेता और कलियुग के रावण में ले-देकर कुछ ही समानताएं हैं।

राकेश अचल

मसलन रावण जन्मजात मिथ्यावादी होता हैं, गांधीवादी नहीं। दोनों युगों का रावण मायावी होता है। उसे पहचानना आसान काम नहीं। कभी वो साधू के वेश में होता हैं तो कभी अन्ना के वेश में। भक्त दोनों युगों के रावण के पास होते हैं। दोनों युगों के रावण बुजुर्गों को लतियाते हैं, उन्हें अपने अलावा किसी पर भरोसा नहीं होता। वे सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी दांव पर लगाने में नहीं हिचकते। लोकतंत्र तो बहुत छोटी चीज है। रावण केवल जय-जयकार पसंद करता है।

हमारे देश में राम और रावण की पहचान करने के लिए राम की अनुपस्थिति में लगातार रामलीलाएं होतीं हैं ,बावजूद लोग राम और रावण की पहचान करने में गच्चा खा जाते हैं। रावण की माया अक्सर जनता कोई मति हर लेती है। अब इसके लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। ‘जा कों प्रभु दारुण दुःख देई, ताकी मति पहलेई हर लेई ‘.मति हरने की विधा बहुत पुरानी है। त्रेता में कैकेयी की मति का हरण हुआ था ,कलियुग में जनता की मति का हरण होता है। तरह-तरह से होता है।

लोकतंत्र में रावण के विविध रूप हैं। रावण साम्प्रदायिक हैं। रावण भ्रष्टाचार है, रावण महंगाई है, रावण भाई-भतीजावाद हैं,रावण परिवारवाद है। यानि रावण का कुनवा त्रेता के रावण के मुकाबले आज ज्यादा बढ़ गया है लेकिन राम पहले भी चार भाई थे और आज भी चार ही हैं। इन चारों में भी अनेक रावण के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। अब किस, किसका नाम लिया जाये ? सब तो रावण की गोदी में बैठे हैं। सब रावण के इशारे पर नाच रहे हैं। सबको रावण से तरह-तरह की उम्मीदें हैं रावण की माया हैं ही अपरम्पार।
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त्रेता में झांक कर देखिये ! तब केवल लंका में रावण था कलियुग में जगह-जगह रावण हैं। इसीलिए देश के अमूमन हर शहर में रामलीला मैदान हैं। इन्हीं मैदानों में लेकर रावण को हर साल मारा जाता हैं लेकिन वो केवल एक दिन के लिए मरता है। .बाक़ी 364 दिन अट्टहास करता है। अब राम जी 364 दिन तो रावण का वध करने के लिए आने वाले नहीं हैं। ये काम तो जनता को ही करना चाहिए। जनता ये काम कर सकती हैं लेकिन बेचारी रावण से लड़े या मंहगाई से कभी खाने का तेल मंहगा, तो कभी जलाने का तेल मंहगा। कभी आटा मंहगा तो कभी दाल मंहगी। कब क्या मंहगा हो जाये,पता ही नहीं चलता ?

कलियुग का रावण मंहगाई पर बात ही नहीं करता। भ्र्ष्टाचार पर मुबाहिसे से दूर भागता हैं। बस ‘अच्छे दिन आएंगे,जल्द आएंगे ‘ कहता रहता हैं.लेकिन अच्छे दिन हैं कि आते ही नहीं और बुरे दिन हैं की अंगद के पैर की तरह जमे हुए हैं। हिलने का नाम ही नहीं लेते। जाने की बात तो छोड़ ही दीजिये। कलियुग का रावण मसखरी में सिद्धस्त हैं। कभी बिरथ लोगों के जूतों पर हँसता हैं तो कभी टीशर्ट पर कभी कुछ कहता हैं,तो कभी कुछ। ताली पीटना रावण का प्रिय शगल है। रावण का ताली पीटना ऐसा कलात्मक हैं कि देखकर किन्नर भी लजा जाते हैं। रावण की ताली ललित कलाओं में शामिल करने योग्य है।
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बहरहाल मै राम रावण की बात कर रहा हूँ। किसी नेता की नहीं। नेताओं की बात करने में मुझे डर लगता है। नेताओं से कौन पंगा ले ? वे जैसे हैं अच्छे हैं। चाहे वे रथ पर हों चाहे सड़क पर। हम दोनों को दूर से प्रणाम करते हैं। हमें पता हैं कि दोनों रामलीला मिलजुलकर खेलते हैं और दर्शकों को मूर्ख बनाते हैं। नेताओं ने ही अब तक रावण को ज़िंदा रखा हैं अन्यथा असली रावण को तो हमारे रामजी कभी का निबटा चुके थे। उन्होंने तो रावण को मोक्ष भी दे दिया था ,ये जो कागज का बारूद भरा रावण है , ये नेताओं का ही बनाया हुआ है। ये हर साल जलता हैं ,लेकिन फिर जन्म ले लेता है।

जनता को चाहिए कि वो कलियुग के राम-रावण की इस नूरा कुश्ती को पहचाने। इसमें लिप्त न हो। रावण यदि राम की भूमिका में हो तो भी रहम न करे और राम को भी नाटक करते देखे तो वनवास दे दे। अपने आप अक्ल ठिकाने आ जाएगी। जनता के हाथ में वोट का तीर हैं ,लेकिन वो हमेशा रावण की नाभि पर नहीं लगता। अक्सर निशाना चूक जाता हैं। बहरहाल राम,रावण और रामलीला ही हैं जो लोकतंत्र के लिए पहेली हैं। लोकतंत्र को परलोक में जाने से रोकने के लिए अपने-अपने मोर्चे पर सजग रहिये। राम की घर वापसी के सांकेतिक दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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