शीर्षक में रामराज के साइड इफेक्ट पढ़कर चौंकिए मत, दरअसल ये एक ऐसा शीर्षक है जो रामराज की कल्पना करने वाले किसी भी भारतीय को समझ में नहीं आएगा,क्योंकि आज जिस तरह से रामराज स्थापित करने की कोशिश की जा रही है उसमें देश का संघीय ढांचा दांव पर लग चुका है। कभी-कभी तो आशंका होती है कि हम सचमुच रामराज की और बढ़ रहे हैं या देश में फिर से कोई मुगलिया सल्तनत कायम करने जा रहे हैं।
देश की आजादी से लेकर अब तक ऐसी घटनाएं अपवाद ही रहीं होंगी जहां राजसत्ता का इस्तेमाल विरोधियों को डराने-धमकाने के लिए किया जाता हो और इन कोशिशों में हमारी न्याय व्यवस्था भी परोक्ष रूप से राजसत्ता की मदद करती हो। यदि असम में भाजपा की सरकार है तो वो गुजरात में अपने विरोधी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उसे प्रताड़ित कर सकती है। यदि पंजाब में ‘आप’ की सरकार है तो वो पंजाब में मुकदमा दायर कर दिल्ली में बैठे अपने विरोधी की हवा खराब करने की कोशिश कर सकती है।
राजनीति में प्रतिस्पर्द्धा का ये नया अध्याय आने वाले दिनों में कितना खतरनाक साबित हो सकता है इसकी कल्पना किसी को नहीं है,क्योंकि राजसत्ता में जो भी है उसका चरित्र एक जैसा है। देश की आजादी के 75 वे वर्ष में इस तरह की हरकतें ओछी मानसिकता का प्रतीक हैं। आप खुद से सवाल कर सकते हैं कि क्या ‘ आप ‘ की पंजाब में सरकार बनते ही एक अविश्वसनीय कवि कुमार विश्वास के खिलाफ मुकदमा दर्ज करना और फिर उनके घर पुलिस भेजना आप के सुप्रीमो की घटिया हरकत नहीं है?
गुजरात के निर्दलीय विधायक चूंकि गुजरात में भाजपा की अखंड राजसत्ता के लिए एक चुनौती हैं। इसलिए उन्हें परेशान करने के लिए क्या असम की पुलिस भाजपा का ‘टूल’ बन सकती है। जिग्नेश का आखिर कुसूर क्या है, सिवाय इसके कि उन्होंने देश के प्रधानमंत्री के बारे में सार्वजनिक रूप से कोई टिप्पणी कर दी है। दुर्भावना तो तब प्रमाणित हो जाती है जब असम वाले जिग्नेश को एक मामले में जमानत मिलते ही दूसरे मामले में दोबारा धर दबोचती है। विरोधियों से निबटने का ये आधुनिक तरीका नहीं है,ये मुगलिया तरीका है और दुर्भाग्य ये है कि इसे आधुनिक मुगल बेशर्मी के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं।
आप कल्पना कीजिये कि जब आप किसी आंदोलन के खिलाफ आंदोलन का ऐलान करेंगे तो राजसत्ता आपको राष्ट्रद्रोही मान लेगी और अदालत भी आपसे राष्ट्रद्रोही की तरह बर्ताव करते हुए आपको जमानत देने के बजाय हड़कायेगी? इसमें हमारी अदालतों का कोई दोष नहीं है। कहते हैं न ‘ यथा राजा,तथा प्रजा ‘ आखिर अदालतों में भी तो इनसान ही काम करते हैं। वे तेल भी देखते हैं और तेल की धार भी। उनका कामकाज समूचे माहौल से प्रभावित होता है। ऐसे में नवनीत राणा को जेल में रहना पड़ता है।
महाराष्ट्र की खिचड़ी सरकार पूजाघरों पर से ध्वनि विस्तारक यंत्र उतारने के बारे में कोई फैसला नहीं कर पाती। हंसी आती है कि राजकाज चलाने वालों को देश में प्रभावशील कानूनों का पता ही नहीं है। अरे देश में ध्वनि विस्तारक यंत्रों के इस्तेमाल और उन पर रोक के लिए पहले से क़ानून हैं,आप उन पर अमल क्यों नहीं करते? यूपी में हल ही में सरकार ने सबके लिए पहले से मौजूद क़ानून सभी के लिए समान रूप से लागू कैसे कर दिया? सवाल नियत का है नीति का नहीं। चूंकि मुद्दा उठाने वाला सल्तनत का भाई लगता है इसलिए फैसला नहीं लिया जा सकता। अब कोई फड़नबीस फड़फड़ाता रहे तो फड़फड़ाता रहे।
आज जिस तरह से राजनीत चल रही है उसे देखकर लगता है कि हम,सबका साथ,सबका विकास का एक थोथा नारा देकर अकेले आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं पर कोई भरोसा नहीं है। यदि भरोसा होता तो हमारी सरकारें अपने प्रतिद्वंदियों के खिलाफ संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग न करतीं। संवैधानिक संस्थाओं को तोता-मैना की तरह इस्तेमाल न करतीं उनकी दशा भूमिनाग जैसी लिजलिजी न करतीं। ये लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
कभी-कभी डर लगता है कि सरकार के खिलाफ असहमति जताने पर आपके खिलाफ किसी भी सूबे की सरकार कार्रवाई कर सकती है,क्योंकि ऐसा करने का उसे संवैधानिक अधिकार है। सरकार कलियुग में सर्वशक्तिमान बन गयी है,उसे सर्वशक्तिमान बनाने वाला गरीब मजदूर, किसान, समाजसेवी, साहित्यकार, पत्रकार उसके निशाने पर है। यूपी में पुलिस किसी भी पत्रकार को निर्वासन कर उसका वीडियो बना सकती है। मध्यप्रदेश से शायद ये प्रेरणा उसे मिली है आप असम में बैठकर गुजरात के आदमी की टिप्पणी से आहत होकर उसके खिलाफ असम में मुकदमा दर्ज करा सकते हैं। अब राजनीतिक कांटे को कानूनी कांटे से निकाला जा रहा है। कोई रोकटोक नहीं, कोई देखने वाला नहीं।
आजाद भारत के इतिहास में ये पहला मौक़ा है जब देश का प्रधानसेवक जहाँ बोलना होता है वहां मौन साध लेता है और जहाँ मौन रहना होता है वहां मुखर होकर बोलता है। एक ही पार्टी अनेक मुखों से एक जैसा बोलती है, भले ही ऐसा करने से देश का पारम्परिक सदभाव कमजोर होता हो,साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता हो। अब संसद में बैठने वाली कोई साध्वी देश के 20 करोड़ मुसलमानों से पाकिस्तान जाने के लिए कहे तो उसे गलत कहने वाला कोई नहीं है क्योंकि जिसे गलत कहना है उसकी मौन स्वीकृति प्रज्ञा जैसी साध्वियों के पास पहले से उपलब्ध हैं।
कहने का आशय ये है कि आज जो हो रहा है वो शुभ और मंगल के लिए नहीं है। प्रतिशोध की राजनीति लोकतंत्र को कभी मजबूत नहीं बना सकती। प्रतिशोध की राजनीति करने वाला किसी भी दल या विचारधारा का हो अंतत: खारिज ही किया जाता है और किया जायेगा। देश में आपातकाल लगाकर प्रतिशोध की राजनीति करने वाली श्रीमती इंदिरा गाँधी इस देश में खारिज होने वाली सबसे बड़ी नेता थीं। दुर्भाग्य ये है कि आपातकाल के गर्भ से निकली पार्टी ही राजसत्ता में आते ही प्रतिशोध की राजनीति को प्रश्रय दे रही है। प्रश्रय ही नहीं दे रही बल्कि इस गुनाह में राज्य सरकारों को भी शामिल कर रही है,जबकि उसे इंदिरा गाँधी से सबक लेना चाहिए था।
आने वाले दिनों में देश एक बार फिर असली मुद्दों से दो-चार होने के बजाय दो-चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में उतरने वाला है। ऐसे में प्रतिशोध की राजनीति और तेज हो सकती है। इस पर नजर रखी जाना चाहिए। कसैली,विषैली और दुर्गन्ध मारने वाली राजनीति से देश का भला नहीं होने वाला। अंतत: हम सब यहीं रहने वाले हैं कहीं और नहीं जाने वाले। देश की आजादी पूर्व विभाजन के समय जो लोग पाकिस्तान नहीं गए वे सब भारतीय हैं, उनसे 75 साल बाद पाकिस्तान जाने के लिए कहना ही एक बड़ा अपराध है। सरकार में यदि साहस है तो ऐसे सिरफिरे वक्तव्य देने वालों के खिलाफ सचमुच राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज किया जाना चाहिए। राष्ट्रद्रोह नवनीत राणा ने नहीं प्रज्ञा भारती ने किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)