मणिपुर को दूसरा कश्मीर बनने से रोका जाना चाहिए
सवाल किया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी जिस इंडिया के प्रधानमंत्री हैं क्या उसमें मणिपुर शामिल नहीं है ?
मणिपुर की दर्दनाक घटना के 79वें दिन कठोर हो चुकी अंतरात्मा में साहस बटोरकर केवल छत्तीस सैकण्ड का संदेश देश को सुनाते वक्त क्या प्रधानमंत्री की ज़ुबान ज़रा भी लड़खड़ाई या कांपी नहीं होगी ? प्रधानमंत्री ने जब बिना नज़रें झुकाए हुए कहा होगा कि उनका हृदय दुख और क्रोध से भरा हुआ है और जो कुछ हुआ वह किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मसार करने वाला है तो क्या देश ने कोरोना काल की तरह ही उनके कहे की सत्यता पर पूरा यक़ीन कर लिया होगा ? क्या हर नागरिक को उनके इस आश्वासन पर पूरा भरोसा हो गया है कि किसी भी दोषी को छोड़ा नहीं जाएगा ? क्या मणिपुर के असली दोषियों की पहचान कर ली गई है?
प्रधानमंत्री की ओर से इस सवाल का जवाब मिलना बाक़ी है कि मणिपुर जब जल रहा था और विपक्ष उनसे हस्तक्षेप का लगातार अनुरोध कर रहा था, वे विदेश यात्राएँ क्यों कर रहे थे ? उनके मुँह से सांत्वना का एक शब्द भी तब क्यों नहीं फूटा जब फ़्रांस यात्रा के दौरान ही यूरोपीय संसद मणिपुर की घटनाओं को लेकर भारत के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित कर रही थी ?
मणिपुर की त्रासदी, जिसमें महिलाओं को उनकी निर्वस्त्र परेड और बलात्कार के लिए राज्य की पुलिस द्वारा ही हिंसक भीड़ के हवाले कर दिया गया था, का संबंध सिर्फ़ उत्तर-पूर्व के एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य से ही नहीं है। उसका संबंध देश और दुनिया की तमाम महिलाओं की अस्मिता और आत्माओं के साथ जुड़ा गया है। मणिपुर की घटना सत्ता में बने रहने के लिए अपने ही नागरिकों के ख़िलाफ़ उनके ही हित-संरक्षकों की दिल दहला देने वाली साज़िश है !
क्या इस बात पर राष्ट्रीय शोक नहीं मनाया जाना चाहिए कि कथित तौर पर भारत द्वारा बेचे जाने वाले हथियारों की मदद से एक क्रूर सैन्य तानाशाही के पैरों तले रौंदे जा रहे म्यांमार की सीमा से लगे बत्तीस लाख की आबादी के मणिपुर में चार मई को हुई वीभत्स घटना के 140 करोड़ जनता के संरक्षक तक पहुँचने में 78 दिन लग गए ! कल्पना की जा सकती है कि विशाल देश के उन सुदूर इलाक़ों ,जहां मोबाइल और इंटरनेट की सुविधाएँ नहीं हैं ,की द्रौपदियों और निर्भयाओं के हाल क्या बनते होंगे ! कितने हाथरस, उन्नाव ,कठुआ और उत्तराखण्ड रात-दिन जन्म लेते होंगे ? कितनी लाशें पुलिसिया संरक्षण में आधी रात को जलाई जाती होंगी और उनके समाचार इंद्रप्रस्थ के भीष्म पितामहों के कानों तक कितने महीनों में पहुँचते होंगे ?
मणिपुर के मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए ज़रा भी शर्म नहीं महसूस की कि इस तरह की सैंकड़ों शिकायतें राज्य में दर्ज हुईं हैं और खबरों को फैलने से रोकने के लिए इंटरनेट सेवाएँ बंद कर दी गईं हैं। (‘दैनिक भास्कर ‘ की खबर है कि 3 मई से 28 जून के बीच 5960 एफ़आईआर मणिपुर में दर्ज हुई हैं और सौ नई प्रतिदिन हो रही हैं। एक-तिहाई शिकायतें केवल महिला उत्पीड़न से जुड़ी हैं।) सांप्रदायिकता के बल पर सत्ता की राजनीति करने वाली हुकूमतें हिन्दी-भाषी राज्यों के हिंदू-मुसलिम संघर्षों और दिल्ली से ढाई हज़ार किलोमीटर दूर स्थित मणिपुर के मैतेई-कुकी तनाव के बीच कोई भेदभाव नहीं करतीं !
मणिपुर की त्रासदी ने भारत के ही एक अति-संवेदनशील भूभाग को भारत की ही आत्मा से और दूर कर दिया है। वहाँ के नागरिकों को महसूस ही नहीं होने दिया जाता है कि वे भी हमारे ही शरीर के अंग हैं। मणिपुर की सभी हुकूमतें प्रेस की आज़ादी पर हमले के मामले में भी कुख्यात हैं। हुकूमत चाहे किसी भी दल की हो। सभी एक जैसी हैं। कोई पंद्रह साल हुए होंगे । तत्कालीन सरकार द्वारा संपादकों की गिरफ़्तारी और मीडिया पर लगाये गए प्रतिबंधों की पड़ताल करने इम्फ़ाल पहुँचे एक स्वतंत्र जाँच दल के सदस्य के रूप में नागरिकों, दुकानदारों से चर्चा करने और तत्कालीन मुख्यमंत्री से मुलाक़ात का अवसर प्राप्त हुआ था। कांग्रेस के ओकरम इबोबी सिंह तब मुख्यमंत्री थे। भ्रष्टाचार के अनगिनत आरोपों से वे और उनकी सरकार घिरी हुई थी।
मणिपुर प्रवास के दौरान जितने भी नागरिकों और दुकानदारों से तब बातचीत करने का मौक़ा मिला चर्चा की शुरुआत उनके द्वारा पूछे गए इसी एक सवाल से होती थी : ‘इंडिया से आए हैं ? इंडिया में किस शहर से ?’ सवाल किया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी जिस इंडिया के प्रधानमंत्री हैं क्या उसमें मणिपुर शामिल नहीं है ? मणिपुर में इंटरनेट की सुविधाएँ बहाल हो जाने दीजिए ! प्रेस को आज़ाद हो जाने दीजिये ! फिर देखिए किस तरह की कितनी व्यथाएँ छप्पन इंच की छातियों को भेदती हुई वहाँ से फूटती हैं !
कौन किससे पूछेगा और कौन जवाब देगा कि तीन मई के बाद से जारी विध्वंस में जो सैंकड़ों लोग मारे गये वे कौन थे ? वे हज़ारों जिन्होंने जान बचाने के लिए पड़ौसी राज्य मिज़ोरम में शरण ली वे कौन हैं ? वे हज़ारों जिन्हें असम के सिलचर और मिज़ोरम से अब मणिपुर वापस लौटना पड़ रहा है वे कौन हैं ? तीन सौ से ज़्यादा चर्चों में आग किसने और क्यों लगाई ? सोशल मीडिया पर वायरल आँकड़ों पर यक़ीन करें तो इस समय प्रत्येक बत्तीस मणिपुरी नागरिक पर सेना का एक जवान तैनात है। स्थानीय पुलिस अलग से है। शांति फिर भी स्थापित नहीं हो पा रही है !
गुजरात से लगाकर मणिपुर तक सभी तरह के नागरिक उत्पीड़नों के प्रति सत्ता की अपाहिज संवेदनशीलता के पीछे सिर्फ़ दो ही कारण हो सकते हैं : पहला तो यह कि सत्ता के सर्व-शक्तिमान होने का यह संदेश नागरिकों को पहुँचाना कि उसके फ़ैसलों को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती । दूसरा यह कि पिछले दो दशकों में देश को इतनी सांप्रदायिक हिंसा से रूबरू करा दिया गया है कि सत्ता ने सामान्य नागरिक की तरह से आहत और प्रताड़ित महसूस करना बंद कर दिया है !
मणिपुर की घटना ने देश की उन करोड़ों महिलाओं की आत्माओं पर प्रहार किया है जिनके समर्थन के बल पर मोदी 2014 में सत्ता में क़ाबिज़ हुए थे और आगे भी बने रहना चाहते हैं । मणिपुर की आग किसी दिन बुझेगी भी और आग में झोंके गए घरों, मंदिरों और चर्चों का पुनर्निर्माण भी होगा। जिन लोगों ने दूसरे राज्यों में शरण ले रखी है वे भी एक दिन वापस अपने ठिकानों पर लौटेंगे। एक चीज अगर वापस नहीं लौटी तो वह नागरिकों का दिल्ली की हुकूमत में उनका यक़ीन होगा। मणिपुर को उत्तर-पूर्वी इलाक़े का कश्मीर बनने से रोका जाना चाहिए !
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)