संघ को डर गांधी से,भाजपा को ख़ौफ़ कांग्रेस का?
वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग का कांग्रेस के G-23 की सक्रियता के निहितार्थों पर आलेख।
‘जी-23’ के अपंजीकृत नाम से सक्रिय कांग्रेस के ग़ैर-ज़मीनी असंतुष्ट और प्रधानमंत्री मोदी आपस में औपचारिक रूप से मिले हुए बिना भी एक ही उद्देश्य के लिए काम करते नज़र आते हैं! उद्देश्य है कांग्रेस से ‘परिवार’ के ‘अवैध क़ब्ज़े’ को ख़त्म करना। असंतुष्टों का मानना है कि इसके बाद कांग्रेस पूरी तरह मज़बूत होकर सारे चुनाव जीतने लगेगी। जो पार्टी अभी ‘घर’ की है वह फिर ‘सब की’ हो जाएगी। दूसरी ओर,प्रधानमंत्री का मानना यह हो सकता है कि इसके बाद कांग्रेस जड़ से ही ख़त्म हो जाएगी।
आरोप है कि मोदी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं भाजपा को जोड़ने और कांग्रेस को तोड़ने के काम में लगे हुए हैं। वे जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी बारह सालों तक उन्होंने यह कोशिश की पर उसमें पूरी तरह से सफल नहीं हो पाए। उनके गुजरात के प्रयोगों के बारे में तो यह भी प्रचारित है कि वे कांग्रेस ही नहीं भाजपा को भी अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ लगातार तोड़ते रहे। कांग्रेस अभी भी प्रमुख विपक्षी दल के रूप में गुजरात में क़ायम है और ‘जी-23’ जैसा कोई समूह भी वहाँ जन्म नहीं ले पाया है।
मोहन भागवत के नेतृत्व वाली आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन महात्मा गांधी से डरते हैं, उन्हें ख़त्म देखना चाहते हैं और मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा कांग्रेस से ख़ौफ़ खाती है। देश को अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिलने के बाद दोनों ही भारत को गांधी और कांग्रेस से मुक्ति दिलवाना चाहते हैं। ज़ाहिर है जब तक ये दोनों बने रहेंगे देश को आज़ादी दिलाने का सारा श्रेय इन्हें ही मिलता रहेगा, सावरकर और गोडसे को नहीं।
देश में गांधी की मूर्तियाँ तोड़ी जा रहीं हैं, गोडसे की खड़ी की जा रहीं हैं, बापू के आश्रमों को राष्ट्रवाद के थिएटरों में बदला जा रहा है, ‘हिंद स्वराज’ के पन्नों को बारूदी मिसाइलों में ढाला जा रहा है पर गांधी है कि मरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं ! यही हाल कांग्रेस का भी है।भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद लगभग चौदह दशक पुरानी यह संस्था ख़त्म नहीं हो पा रही है। ’जी-23’ के एक कर्णधार कपिल सिब्बल की मानें तो साल 2014 के बाद से 177 सांसद और विधायक ; और 222 उम्मीदवार कांग्रेस छोड़ चुके हैं।उनका यह भी कहना है कि:’ किसी और राजनीतिक दल ने इस तरह का पलायन नहीं देखा होगा।’ इसके बावजूद सिब्बल और ग़ुलाम नबी,आदि को इतनी मेहनत करनी पड़ रही है !
जैसे ही कोई चुनाव करीब आता है ,प्रधानमंत्री के भाषणों में गांधी परिवार की उपस्थिति के चर्चे होने लगते हैं। (याद किया जा सकता है कि पाँच राज्यों के चुनावों के ठीक पहले संसद के बजट सत्र में क्या हुआ था ! राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के जवाब में प्रधानमंत्री ने संसद का तीन घंटे का कीमती समय सिर्फ़ कांग्रेस की चमड़ी को नंगा करने में ही खर्च किया था। जब मोदी बोल रहे थे ,उनकी पार्टी के सांसद मेज़ें थपथपा रहे थे।)
दूसरी ओर, चुनावों के ठीक बाद कांग्रेस की दुर्गति की प्रतीक्षा में बैठा हुआ असंतुष्टों का समूह भी परिणामों की घोषणा के साथ ही नेतृत्व परिवर्तन के लिए टूट पड़ता है। इस बार भी वैसा ही हुआ पर उसकी उम्मीदें 2019 की तरह पूरी नहीं हुईं जब हार की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था।सोनिया गांधी ने इस्तीफ़े की पेशकश ज़रूर की होगी पर अंततः नहीं दिया।
कोई दो मत नहीं कि जिस तरह कुछ धर्मों में अन्यान्य कारणों से स्वेच्छा से प्राण त्याग देने की इच्छा रखने वाले अनुयायी अन्न-जल छोड़ देते हैं वैसी ही कुछ हालत इस समय कांग्रेस की भी है।एक सौ सैंतीस साल की उम्र को प्राप्त कर चुकी यह पार्टी भी देह त्याग की मुद्रा में है। ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उसके सिरहाने बैठा असंतुष्ट अनुयायियों का समूह बजाय किसी योग्य चिकित्सक को बुलाकर इलाज का इंतज़ाम करने के उसके द्वारा ली जाने वाली अंतिम साँस के बाद पार्टी का बँटवारा करने की प्रतीक्षा में है।
स्मरण किया जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देते समय राहुल गांधी ने कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं पर सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया था कि वे बजाय पार्टी को जिताने के अपने बेटे-बेटियों को ही जितवाने में लगे रहे। जिन नेताओं पर राहुल ने आरोप लगाए थे वे कौन थे और आज कहाँ हैं ? वे आज भी उन्हीं स्थानों पर उपस्थित हैं और पूर्व की तरह ही निरंकुश बने हुए हैं।
इस सवाल के जवाब का देश की अंतरात्मा और देह के साथ गहरा सम्बन्ध है कि गांधी और उनके सानिध्य में पलकर बड़ी हुई एक ऐसी धर्म-निरपेक्ष संस्था को ( जिसे वे बाद में स्वयं ही समाप्त करके लोक सेवक संघ में परिवर्तित करना चाहते थे) भारत से विदा करने में भाजपा जैसी घोर हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी के क्या निहित स्वार्थ होने चाहिए ? दोनों दलों (भाजपा और कांग्रेस) के बीच उनके राजनीतिक प्रभाव-क्षेत्र ,सदस्य-संख्या, चंदे की राशि और साध्य की प्राप्ति के लिए हिंसा का भी साधन के रूप में इस्तेमाल करने,आदि को करने को लेकर इतना बड़ा फ़र्क़ है कि आपसी बराबरी के लिए कोई बारीक सी गली भी नज़र नहीं आती। तब और क्या कारण हो सकते हैं जो उन असंतुष्टों को नहीं दिख रहे हैं जो देह-त्याग जैसी स्थिति में भी कांग्रेस पर और कठिन उपवास के लिए दबाव बना रहे हैं ?
कांग्रेस का बने रहना केवल इसीलिए ज़रूरी नहीं है कि उसके द्वारा लड़े जाने वाला हरेक चुनाव सत्ता की प्राप्ति में तब्दील होना ही चाहिए, बल्कि इसलिए आवश्यक है कि जो भी पार्टी या व्यक्ति शासन में चुनकर आए उसकी धर्म-निरपेक्षता के प्रति नीयत और उसके एकाधिकारवादी चाल-चलन पर कड़ी नजर रखी जा सके। जो कारण कांग्रेस को एक आज़मायी हुई प्रजातांत्रिक संस्था के रूप में सुरक्षित करने के सम्बंध में गिनाए जा सकते हैं वे ही गांधी के विचार को भी संरक्षित रखने के सम्बंध में पेश किए जा सकते हैं।
असंतुष्टों द्वारा कांग्रेस में नेतृत्व-परिवर्तन या सामूहिक नेतृत्व की माँग का सम्बंध पार्टी के लिए अपना रक्तदान करने से ज़्यादा उनकी इस मनोकामना से हो सकता है कि बजाय एक-एक करके लोग भाजपा में भरती हों ,पूरी पार्टी ही उसमें समाहित कर दी जाए। (किसी वक्त सोनिया गांधी के विदेशी मूल का नागरिक होने को मुद्दा बनाकर अलग कांग्रेस बनाई गई थी, अब यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी की स्थापना एक गोरी चमड़ी के व्यक्ति -ए.ओ.ह्यूम- ने की थी ,किसी हिंदू ने नहीं )
पूछा जा सकता है कि कांग्रेस की तरह के नेतृत्व-परिवर्तन की माँग क्या 1984 के चुनावों के बाद भाजपा में की गई होगी जब लोकसभा में उसकी सदस्य संख्या घटकर सिर्फ़ दो रह गई थी? या तब की गई थी जब मोदी के नेतृत्व में 2014 में पार्टी की प्रचंड जीत के तत्काल बाद पहले दिल्ली और बिहार और फिर 2018 में मध्यप्रदेश ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में करारी पराजय हो गई थी?
इस बात की क़तई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि तेरह मार्च को दिल्ली में हुई कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस किसी नए अवतार में प्रकट होने वाली है और वह जनता (तथा धर्म) से जुड़े मुद्दों पर ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से सत्तारूढ़ दल को चुनौती देगी। उसकी तमाम कमज़ोरियों के बावजूद वर्तमान की कांग्रेस को भी बनाए रखना इसलिये ज़्यादा ज़रूरी है कि प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था को लेकर मोदी के नेतृत्व के प्रति देश का वैसा विश्वास कभी उत्पन्न नहीं हो पाएगा जैसा किसी समय नेहरू, वाजपेयी या मनमोहन सिंह को लेकर था। कांग्रेस के असंतुष्ट नेता सोनिया गांधी के इंदिरा गांधी बन जाने का तो विरोध करते हैं पर मोदी के इंदिरा अवतार के प्रति उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। कांग्रेस के विद्रोही शायद मोदी की मदद से ‘परिवार’ को संगठन की इमारत से बेदख़ल करना चाहते हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)