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बुंदेलखंड और सूखा बनते जा रहे हैं एक-दूसरे के पर्याय, 7 जिले सूखाग्रस्त

बुंदेलखंड और सूखा एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। हर साल इस इलाके पर लगे सूखा के कलंक को मिटाने की मुहिम चलती है, मगर हालात वही ढाक के तीन पात रहते हैं।

भोपाल (जोशहोश डेस्क) बुंदेलखंड और सूखा एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। हर साल इस इलाके पर लगे सूखा के कलंक को मिटाने की मुहिम चलती है, मगर हालात वही ढाक के तीन पात रहते हैं। अब इस इलाके के 800 तालाबों के जीर्णोद्धार की मुहिम शुरू हो रही है, लेकिन सवाल वही है क्या इस इलाके से यह कलंक धुल पाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि इस इलाके का सूखा तो कुछ लोगों के लिए उत्सव है।

वैसे तो बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के सात-सात जिलों को मिलाकर बनता है, कुल मिलाकर इस इलाके में 14 जिले आते हैं और सभी का हाल लगभग एक जैसा है। हम बात मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के सात जिलों की कर रहे हैं। इस इलाके के अधिकांश जिलों में लगभग पूरे साल पानी का संकट रहता है और राज्य सरकार से लेकर केंद्र और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं यहां के जल संकट को खत्म करने के लिए योजनाएं बनाने के साथ करोड़ों का बजट मंजूर करती हैं।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि, “हमारी संस्कृति ही जल संस्कृति है। बुंदेलखण्ड में महाराज छत्रसाल द्वारा व्यापक स्तर पर तालाबों का निर्माण कराया गया। बुंदेलखण्ड में निर्मित चंदेलकालीन ऐतिहासिक 800 तालाबों को चिन्हित कर उनके जीर्णोद्धार का कार्य आरंभ किया जा रहा है। प्रदेश में नदियों के पुनर्जीवन का कार्य भी चल रहा है।”

बुंदेलखंड किसी दौर में जल संरक्षण और संवर्धन की मिसाल हुआ करता था, बुंदेला और चंदेल काल में बने तालाब इसकी गवाही देते हैं, मगर वक्त गुजरने के साथ यह इलाका जल संकट ग्रस्त क्षेत्र के तौर पर पहचाना जाने लगा। आजादी के बाद सरकारों ने इस इलाके की तस्वीर बदलने के लिए अनेकों योजनाएं बनाईं और करोड़ों का बजट भी मंजूर किया। उदाहरण के तौर पर बुंदेलखंड पैकेज में मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड को लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए मिले, मगर क्या हुआ यह किसी से छुपा नहीं है। इसके अलावा पानी बचाओ, जलाभिषेक, पानी रोको जैसे अनेक अभियान चले, कागजों पर बड़ी-बड़ी जल संरचनाएं बनीं और दावा भी किया गया कि पानी रोका गया है। अब एक बार फिर तालाबों की जीर्णोद्धार के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने की तैयारी है।

बुंदेलखंड पैकेज के हुए दुरुपयोग को लेकर लंबी लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता पवन घुवारा का कहना है कि, “ताल के उद्धार की बात ही यह बताती है कि भ्रष्टाचार रसातल में जा रहा है। इस इलाके के लिए जरूरी है कि पहले बेतवा लिंक नदी जोड़ो परियोजना पूरी हो, उसके बाद ही तालाबों के उद्धार की बात हो। यह तो ठीक वैसे ही हो रहा है, जैसे पहले बरसात हो जाए और फिर नदी बनाई जाए।”

राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मिश्रा का कहना है कि, “पानी की अजब कहानी है, सरकारें और कुछ चुनिंदा लोग इससे जुड़कर हालात बदलने का दावा करते हैं, मगर यह जनता की भागीदारी के बगैर संभव नहीं है। जब जनता भागीदारी करती है तो बजट की जरुरत नहीं होती। जल संरक्षण के कई मॉडल ऐसे हैं, जहां सरकारी मद से नहीं बल्कि जनता की कोशिश से गांव पानीदार हुए हैं, परंतु पानी के नाम पर लूट करने वालों को कागजी तौर पर जनता की भागीदारी दिखाना तो आता है, हकीकत में ऐसा होता नहीं है। यही कारण है कि जिन इलाकों में सरकार और दीगर लोग मिलकर काम करते हैं, वहां कुछ साल तक ही पानी के संरक्षण की बात प्रचारित की जाती है, परियोजना का समय पूरा होते ही हकीकत सामने आने लगती है।

मिश्रा आगे कहते है कि, “एक सवाल का जवाब हर किसी को खोजना चाहिए कि अगर वाकई में जल संरक्षण का ईमानदारी से काम हुआ होता तो क्या एक जिले को भी समस्या मुक्त नहीं किया जा सकता था। आखिर ऐसा हुआ क्यों नहीं। बुंदेलखंड का सूखा तो कुछ लोगों के लिए उत्सव है। यही कारण है कि दिसंबर से जून तक पानी संरक्षण की बात जोरों से उठती है। सरकार को अब से 10 साल पहले जिन क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता का दावा किया गया था, वहां आज हाल क्या है इसका आंकलन कराना चाहिए, साथ ही जहां भी काम हो उसका सोशल ऑडिट भी हो।”

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