भोपाल (जोशहोश डेस्क) केंद्र में नेहरू साथ उनके सहयोगी डॉ. कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju ) मंत्री थे। नेहरू को लगा कि यही सही समय है, जब काटजू को मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री बनाकर भेजा जा सकता है। शायद नेहरू उन्हें मध्यप्रदेश में व्यस्त रखकर वीके कृष्णमेनन को रक्षामंत्री बनाना चाहते थे। जोशहोश मीडिया की सीरीज ’18 मुख्यमंत्रियों के 18 किस्से’ में आप जान सकेंगे, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्रियों की अनसुनी कहानियां। आज पढ़िए मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju ) के किस्से।
1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश का जन्म हुआ और इस प्रदेश ने जन्म के पहले तीन महीनों में ही तीन मुख्यमंत्री देख लिए। दो महीने के लिए रविशंकर शुक्ल, 1 महीने के लिए भगवंतराव मंडलोई और फिर कैलाशनाथ काटजू (Kailash Nath Katju)। कहते हैं कि काटजू ऊंचा सुनते थे और उन्हें भूलने की भी आदत थी। वे 31 जनवरी 1957 से 12 मार्च 1962 तक मध्यप्रदेश के सीएम रहे। काटजू के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने चंबल परियोजना के तहत मंदसौर में चंदा करके गांधी सागर डैम का निर्माण कराया था। इसलिए उन्हें चंबल साहब भी कहा जाता था। पहले सीएम रविशंकर शुक्ल की मृत्यु के बाद कार्यवाहक मुख्यमंत्री मंडलोई सिर्फ एक महीने ही इस पद पर आसीन रहे। इस बीच मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए आंतरिक घमासान हो चुका था और नेहरू यहां के संकट से कुछ खासे चिंतित थे। केंद्र में उनके साथ उनके सहयोगी डॉ. कैलाश नाथ काटजू (Kailash Nath Katju ) मंत्री थे। नेहरू को लगा कि यही सही समय है, जब काटजू को मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री बनाकर भेजा जा सकता है। शायद नेहरू उन्हें मध्यप्रदेश में व्यस्त रखकर वीके कृष्णमेनन को रक्षामंत्री बनाना चाहते थे। डॉ. काटजू मोतीलाल नेहरू के साथ वकालत सहायक रह चुके थे तथा उनकी स्थिति जवाहरलाल के ऊपर थी। जवाहरलाल के साथ प्रसिद्ध आईएनए लाल किला ट्रायल में भी वे काला कोट पहनकर वकालत में साथ थे। काटजू, नेहरू से 2 साल बड़े भी थे।
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हमेशा विवादों में रहने वाले विख्यात न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू कैलाशनाथ काटजू के प्रपौत्र हैं। उस जमाने में जब कारों की कीमत मात्र दो-तीन हजार रुपए होती थी, जब काटजू की आमदनी पच्चीस हजार रुपए महीने आंकी जाती थी। देश के पहले मंत्रिमंडल में, जो कांग्रेस के नेतृत्व में सन् 1937 में गठित हुआ, उस समय जब काटजू को उसमें शामिल होने के लिए कहा गया तो वे अपनी प्रेक्टिस छोड़ने को तैयार नहीं थे। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद की काफी समझाइश के बाद ने सहमत हुए तो उन्होंने अपनी बैंक पासबुक सामने रख दी, जिसमें कहा जाता है, उस समय तेरह लाख रुपए थे। ऐसा करते हुए उन्होंने कहा कि मैं नहीं चाहता कि जब मैं मंत्री पद से हटूं, तो कोई मुझ पर लांछन न लगाए कि मैंने गलत तरीकों से यह सम्पत्ति अर्जित की है। कालान्तर में स्वतंत्रता पूर्व एवं बाद में वे गृह, रक्षा और विधि विभाग के मंत्री रहे। 31 जनवरी सन् 1957 को जब डॉ. काटजू भोपाल के बैरागढ़ हवाई अड्डे पर उतरे, तो उन्हें भोपाल में जानने वाला कोई नहीं था। उसी दिन डॉ. काटजू ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। चूंकि नेहरू और कांग्रेस हाईकमान का यह आदेश था इसलिए ऊपरी तौर पर मध्यप्रदेश के सभी नेताओं ने काटजू को मुख्यमंत्री तो स्वीकार कर लिया पर मन से वे उन्हें कभी नहीं स्वीकार कर सके।
भुलक्कड़ मुख्यमंत्री
काटजू के बारे में प्रसिद्ध है कि बड़ी उम्र के कारण उनको स्मृति लोप हो जाना साधारण बात थी। देखने और सुनने में तकलीफ थी सो अलग। एक बार जब वे खंडवा गए तो तत्कालीन कलेक्टर सुशील चंद्र वर्मा उनकी गाड़ी चलाते हुए बुरहानपुर दौरा कराने के लिए ले गए। बुरहानपुर रेस्ट हाउस में अधिकारियों से परिचय के समय कलेक्टर वर्मा, मुख्यमंत्री से दूर बगल में खड़े थे। जब सबसे परिचय हो गया तो काटजू ने वर्मा से मुखातिब होते हुए कहा- महाशय आपने अपना परिचय नहीं दिया। वर्मा बगले झांकने लगे और धीरे से कहा- ‘सर मैं कलेक्टर हूं और आपकी गाड़ी चलाते हुए मैं ही आया हूं। काटजू हंस दिए’। ऐसा ही एक किस्सा छतरपुर सर्किट हाउस में हुआ। वहां के स्थानीय विधायक एवं मंत्री दशरथ जैन जब एक प्रतिनिधि मंडल को लेकर अंदर गए। परिचय की औपचारिकता होने लगी तो दशरथ जैन ने लोगों का परिचय कराया और अंत में डॉ. काटजू पूछ ही बैठे- और आप? इस पर दशरथ जैन ने कहा- मैं दशरथ जैन हूं, डॉ. साहब। उस समय जो उत्तर मिला उससे न केवल प्रतिनिधि मंडल के लोग वरन् दशरथ जैन स्वयं अवाक् रह गए। काटजू ने कहा एक दशरथ जैन तो हमारे मंत्रिमंडल में भी हैं। बेचारे दशरथ जैन आश्चर्य से बोले- मैं वही दशरथ जैन हूं। इस पर डॉ. काटजू ने कहा- पहले क्यों नहीं बताया, क्या मैं जानता नहीं।
[साभार- राजनीतिनामा मध्यप्रदेश]