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305 साल पहले एक पत्र ने रखी थी इंदौर के बिजनेस हब बनने की नींव

मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर के लिए तीन मार्च बेहद अहम दिन माना जाता है। करीब तीन सौ साल पहले तीन मार्च को ही इंदौर की स्थापना का बीज पड़ा था।

इंदौर (जोशहोश डेस्क) मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर के लिए तीन मार्च बेहद अहम दिन माना जाता है। करीब 305 साल पहले तीन मार्च को ही इंदौर की स्थापना का बीज पड़ा था।अनूठी बात यह है कि इंदौर की स्थापना की उद्देश्य ही इसे बिजनेस हब बनाया जाना था। एक पत्र ने इस विचार पर मोहर भी लगा दी थी।

इंदौर की स्थापना कैसे हुई? किसने लिखा था वह पत्र ? और कैसे हुआ इस पर अमल?

इन सब सवालों का जवाब अरविंद कुमार जोशी की पांच साल पुरानी एक फेसबुक पोस्ट में मिलता है। पढ़िए अरविद कुमार जोशी की यह पोस्ट

इंदौर की स्थापना की भूली हुई कहानी

यह तब की बात है, जब इंदौर में होल्कर नहीं आए थे।आज से लगभग 300 साल पहले ‘स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन’ के एक दूरदर्शी विचार के तहत इंदौर की स्थापना का बीज पड़ा और यह क्रांतिकारी कल्पना थी तब के इंदौर के ज़मींदार रावराजा नन्दलाल मंडलोई की। उन्होंने कर-मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के लिए उस समय के दिल्ली के बादशाह को अर्ज़ी भेजी और उन्हें 3 मार्च 1716 को अनुमति मिल गई।

नन्दलाल मंडलोई

यहाँ कारोबार करने पर कर-छूट की सुविधा से खिंचकर कई व्यवसायी और उत्पादक सियागंज से लेकर नन्दलालपुरा तक के क्षेत्र में बसने लगे। सियागंज तब ‘सायर’ (चुंगी नाका) के नाम से जाना जाता था और ‘नन्दलालपुरा’ नाम अपने संस्थापक नन्दलाल मंडलोई के कारण पड़ा। तेजकरनपुरा (जो आजकल ‘शनिगली’ के नाम से जाना जाता है), रावजी बाज़ार, निहालपुरा, निहालगंज मंडी जैसे कई स्थानों के नाम ज़मींदार परिवार के वंशजों के नाम पर पड़े।

मालवा सूबा मुग़ल बादशाह के अधीन था। सूबे का मुख्यालय उज्जैन थ। नन्दलाल के पूर्वज तब इंदौर के देव गुराडिया के पीछे स्थित कम्पेल में रहते थे। वे मालवा के सूबेदार के मार्फत बादशाह को राजस्व का हिस्सा भेजते थे। एक संत की प्रेरणा से नन्दलाल के दादा ने खान (तब का नाम ‘ख्याता’) नदी के किनारे 1800 ई. में बड़ा रावला का निर्माण किया था। नदी पर पाल बांधी गई ताकि पानी इतना गहरा हो जाए कि हाथियों को नहलाया जा सके। वह स्थान ‘हाथीपाला’ कहलाया।

जब उज्जैन के सूबेदार गिरधर नागर और दया बहादुर दिल्ली के बादशाह की अंध-भक्ति में डूबे थे, नन्दलाल मंडलोई ने भांप लिया कि मुग़ल साम्राज्य का सूर्य अस्त होनेवाला है और मराठे नई शक्ति बननेवाले हैं। दक्षिण से आनेवाले मराठों के रास्ते में नर्मदा बड़ी बाधा थी। इसके उत्तरी तटों पर चुंगी वसूलने का अधिकार नन्दलाल मंडलोई का था। अपने मित्र जयपुर के सवाई जयसिंह के आग्रह पर नन्दलाल मंडलोई ने पेशवा की सेना को अपने घाटों से 1731 ई. में नर्मदा पार करने में और दया बहादुर को हराकर मालवा में पैर जमाने में मदद की।

जयसिंह ने जीत से प्रसन्न होकर नन्दलाल मंडलोई को आभार-पत्र में लिखा, “आपकी हज़ार-हज़ार तारीफ़। मैंने (बाजीराव) पेशवा को लिखा है कि वे मालवा के सारे सरदारों के मामले आपकी इच्छानुसार तय करें।” पर दस दिन के भीतर ही नन्दलाल मंडलोई की मृत्यु हो गई। सर जॉन मॉलकम के अनुसार, “मराठों के मालवा अभियान के दौरान नन्दलाल मंडलोई के मराठों के प्रति झुकाव और मराठों को समय-समय पर दिए गए धन के कारण नन्दलाल को पेशवा की मालवा-विजय के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान मिला।

बाद में, पेशवा ने मालवा में चौथ वसूलने का अधिकार अपने सूबेदार मल्हारराव होल्कर को सौंप दिया। इस तरह होल्कर राज्य की नींव पड़ी, पर प्रारम्भ में राज्य की राजधानी मल्हारराव की पुत्रवधू अहल्याबाई ने अपनी धार्मिक वृत्ति के चलते नर्मदा तट पर महेश्वर बनाई। अहल्याबाई की मृत्यु के बाद यह भानपुरा अंतरित हो गई।

सूबेदार मल्हारराव होल्कर

यहाँ दो भ्रांतियां दूर कर देना उचित होगा। पहली तो यह कि ‘इंदौर देवी अहल्या की नगरी है’ अहल्याबाई ने न केवल अपने राज्य के सभी स्थानों के विकास में समान रुचि ली, बल्कि पूरे भारत में कई जगहों पर निर्माण-कार्य कराए। दूसरी, यशवंतराव होल्कर तक के सारे महाराजा अहल्याबाई के वंशज हैं। दिवंगत होने के साथ ही अहल्याबाई का होल्कर वंश समाप्त हो गया था। उनके पति की युद्ध में मृत्यु हुई, पुत्र कपूत निकला और बाद में उसे भी खोना पड़ा—इन सब को उन्होंने ईश्वरीय न्याय मानकर झेला और दरबार में और पड़ोसी राज्यों में चलती दुरभिसंधि के बीच राजकाज की जिम्मेदारी इस दृढ़ता और कौशल से निबाही कि इतिहास में वे एक शलाका-नारी सिद्ध हुईं।

अहल्याबाई ने तुकाजी का चुनाव अपने सेनापति के रूप में किया, जो समय की कसौटी पर सही साबित हुआ। तुकाजी वीर थे और अंत तक वफ़ादार रहे तुकाजी भी होल्करों के पैतृक ‘होळ’ गांव के थे और खुद को ‘होल्कर’ ही कहते थे। वारिस-विहीन अहल्याबाई का राजकार्य तुकाजी होल्करके वंशजों ने संभाला, जबकि उनका अहल्याबाई के वंश से कोई सम्बन्ध नहीं था।

अहल्याबाईके बाद तुकाजीके पुत्रों में गद्दी हथियाने की जंग छिड़ी, जिसमें जसवंतराव होल्कर सफल हुआ। जसवंतराव ने जब सिंधिया-शासित उज्जैन और महाकाल को लूटा, तब बदले में सिंधिया ने भी इंदौर को पिंडारियों की मदद से लूटा और राजबाड़ा जला दिया। तब होल्करों ने इंदौर के पुनर्निर्माण के लिए तत्कालीन ज़मींदार दुलेराव और उनके पुत्र माधवराव से आग्रह किया।

1818 ई. में होल्कर महिदपुर की लड़ाई में अंग्रेज़ों से हार गए और राजधानी इंदौर लाए। इंदौर तब तक कपास, गेहूं, अफ़ीम की मंडी और उद्योग-धंधों के केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। तब रेसिडेंसी के निर्माण के लिए तत्कालीन ज़मींदार के नवलखा बाग से जमीन दी गई। पिछली सदी में बने महाराजा यशवंतराव अस्पताल की ज़मीन भी जनकल्याण के काम को ध्यान में रखते हुए ज़मींदार-परिवार ने नाम-मात्र की राशि पर दे दी।

इंदौर को उद्योग-नगरी ही नहीं उद्यान-नगरी बनाने का सूत्रपात भी नन्दलाल मंडलोई ने किया था और इंदौर का वह स्वरूप आज भी कमो-बेश रूप में बना हुआ है।

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