Politics

सबसे बड़ा सवाल-आख़िर देश की जनता को क्या चाहिये?

वरिष्ठ पत्रकार डॉ.राकेश पाठक का चुनाव परिणामों के संदर्भ में आलेख

पहली बात: ‘भारतीय जनता’ और ‘भारतीय जनता पार्टी’ को कोटि कोटि बधाई। लोकतंत्र में जनादेश ही सर्वोपरि है। हमेशा रहना ही चाहिये।
यह जनता का हक़ है कि वो अपने लिये किसे और कैसी सरकार चुने।

दूसरी बात: हम पत्रकार होने से पहले एक मनुष्य,एक नागरिक,एक मतदाता और एक भारतीय हैं।

इस नाते जीवन की अंतिम सांस तक घृणा की राजनीति के प्रतिपक्ष में थे, हैं और रहेंगे।
(यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि आकंठ घृणा और असत्य की राजनीति कौन कर रहा है।)
अस्तु।

अब चुनावी जय-पराजय के बहाने समाज के अंतस को टटोलने का प्रयास करते हैं।
एक नागरिक और पत्रकार दोनों के नाते हमारा फ़र्ज़ है कि हम सरकार के साथ साथ जनता से भी सवाल करें।

ध्रुव सत्य है कि पांच राज्यों के चुनाव में बीजेपी ने पंजाब को छोड़ कर ऐतिहासिक जीत दर्ज़ की है।
एग्जिट पोल को छोड़ कर लगभग सबके अनुमान धरती पर चित्त पड़े हैं।

डॉ.राकेश पाठक

लेकिन यह जीत जितना राजनैतिक विश्लेषण मांगती है उससे अधिक इसकी समाजशास्त्रीय/मनोवैज्ञानिक शल्य क्रिया की दरकार है।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि आख़िर देश की जनता को क्या चाहिये?
सवाल यह भी है कि क्या जनता के सवाल उठाना अब ग़ैर ज़रूरी हो गया है? सवाल उठाने वाले क्या जनद्रोही हैं?

क्या जनता अपने उत्पीड़क से ही प्रेम करने लगी है जिसे कुछ सुधीजन ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ कह रहे हैं?

क्या जनता को सिर्फ़ झोला भर अनाज की ख़ैरात और बोरा भर नफऱत की सौग़ात (?) से ‘आत्मरति’ सा आंनद मिलने लगा है?

इन सब सवालों के जवाब हैं.. हां भई हाँ…!

आइये इसे समझने की कोशिश करते हैं…

★घृणा का मलहम और भय का भूत..

समाज की सामूहिक चेतना पर साम्प्रदायिक विद्वेष का ऐसा मलहम रख दिया गया है कि उसे अपने किसी दुःख, दर्द से कोई फर्क़ नहीं पड़ता। उसके दिलो दिमाग़ में इस्लामोफोबिया का डर इस कदर बिठा दिया गया कि उसे अपनी बदहाली तक दिखना बन्द हो गयी।

उत्तर प्रदेश का चुनाव भले ही विपक्ष ने बेरोजगारी,महंगाई, कोरोना काल, किसान आदि आदि के मुद्दे पर लड़ने की कोशिश की लेकिन सत्ताधारियों ने अपनी लीक नहीं छोड़ी।

प्रधानसेवक से लेकर प्रदेश के मुखिया तक, गृह मंत्री से लेकर पन्ना प्रमुख तक किसी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। देश के मुखिया को साइकिल तक को आतंकवादी बताने में कोई शर्म, लिहाज नहीं आया तो मुख्यमंत्री दिन रात अस्सी-बीस, अब्बा जान, भाई जान कर सिर्फ़ और सिर्फ़ घृणा का कारोबार फ़ैलाते रहे।

बहुसंख्यकों के मन में यह घर कर गया कि अगर कोई और पार्टी जीती तो अगले ही दिन उत्तर प्रदेश पाकिस्तान बन जायेगा।

भय के भूत और घृणा के मलहम ने बहुसंख्यकों को अपने हर घाव पर ठंडी सांस लेने का सुख दे दिया है।
किसी भी सभ्य समाज और लोकतंत्र के लिये देश के मुखिया और देश पर राज कर रही पार्टी का यह तौर तरीक़ा आने वाले कल की गहरी अंधेरी सुरंग की दस्तक ही है।

यह भय का भूत और घृणा का मलहम ही था कि जनता अब भूल गयी….

  • वरना यह कैसे सम्भव है कि उत्तर प्रदेश के हज़ारों, लाखों किसान साल भर चले अपने आंदोलन को भूल जाएं?
    कैसे मुमकिन है कि सात सौ किसानों की मौत पर एक भी शब्द न बोलने वाले देश के मुखिया की आंदोलन की दी गयी अपशब्द समान उपमाएं भूल जाएं?

-वरना कैसे सम्भव है कि लखीमपुर खीरी में थार से कुचल कर मार दिए गए किसानों का ख़ून सूखने से पहले वोट की मशीन हरहरा कर कमल खिला दे.?

  • वरना कैसे हो सकता है कि हाथरस में आधी रात जला दी गयी ‘हिन्दू’ लड़की की चिता की राख अभी ठंडी भी न हुई हो और हाथरस में कमल दल पर वोटों का प्रेम रस बरसने लगे?
  • वरना कैसे हो सकता है कि नौकरी के लिये पीठ पर लाठी और पेट पर लात खाकर कराहने वाले युवाओं की टोली पोलिंग स्टेशन के भीतर दाख़िल होते वक़्त अपने दर्द को भूल कर बटन दबाए?
  • वरना कैसे हो सकता है कि कोरोना काल में बदइंतज़ामी के चलते अपनों की दर्दनाक मौत और गंगा में बहते शव से भी आंख फेर कर मतदाता ने अपनी चेतना का ही तर्पण कर दिया?

जनता के दुःख दर्द, समस्याओं, ज़रूरतों पर विपक्ष को, पत्रकारों को, बुद्धिजीवियों को, सामाजिक कार्यकर्ताओं को लिखना,बोलना नहीं चाहिये था?
ऊपर जिन मुद्दों का ज़िक्र किया है क्या वे जन सरोकार के मुद्दे नहीं थे, क्या उन पर लिखने बोलने वालों ने कोई अपराध किया था?

अब बात ‘लाभार्थियों’ की…

उत्तर प्रदेश की प्रचंड जीत में ‘लाभार्थियों’ का बहुत बड़ा अंशदान माना जा रहा है।
कोरोना काल की महाआपदा के बाद पांच किलो अनाज,तेल का झोला ग़रीब और ज़रूरतमंद के लिये सचमुच प्राणवायु बना।

मोदी-योगी की तस्वीरों वाले झोले ने देहरी पर करके घर के भीतर चौके-चूल्हे तक पैठ बनाई।
लेकिन इस ‘नमक’ की क़ीमत जिस तर्ज पर कह कर वसूली गयी वह पहली बार हुआ।

आज़ादी के बाद से हर सरकार लोक हित में ऐसे काम करती रही है। भूमिहीनों को पट्टे से लेकर बेघरों को घर देने तक। दलित, आदिवासियों को सामाजिक समानता के लिये तमाम सुविधाओं से लेकर कर्ज़ माफ़ी तक।

यह लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार की ज़िम्मेदारी थी, है और रहेगी। पहले भी ऐसी ख़ैरात जनता के पैसे से ही बंटती थी और आज भी।
लेकिन महान आपदा में बांटे गए नमक की क़ीमत वसूलने का आव्हान देश का मुखिया करे ऐसा पहले नहीं हुआ।

★ फ्रीबीज़ कह कर सबसे ज्यादा गाली देते हैं…

विडम्बना यह है कि सरकार और सत्ताधारी दल के समर्थक समूह ही मुफ़्त सुविधाएं पाने वालों को अहर्निश गाली देते हैं। आप अपने परिवार, मित्रों के व्हाट्सएप्प ग्रुप देख लीजिये.. खाये अघाये मध्यवर्ग की सबसे प्रिय गाली है ‘फ्रीबीज़’।

जब भी जनता का कोई वर्ग सरकारी सुविधा से लाभान्वित होता है तब इसी श्रेष्ठि वर्ग का आईटी सेल ग़रीब, ज़रूरतमंद को टुकड़खोर, हरामखोर, फोकटिया, फ्री फुग्गे पर पलने वाला पैरासाइट बताने के लिये हज़ारों मैसेज़ तैरा देता है।

ग़रीब, ज़रूरतमंद के हक़ में लिखने,बोलने वालों को देश के मुखिया से लेकर चौराहे पर ‘राष्ट्रवाद की अफ़ीम’ फांकता लफ़ंगा खुले आम अपशब्दों से नवाज़ता है।

और फिर भी दिन रात गाली खाने वाला वोटर अपने मतदाता स्वाभिमान, नागरिक चेतना, मानवीय गरिमा पर धर्म/ मज़हब का फाहा रख कर गालीबाज़ों की ही झोली भर देता है।

अंतिम: इस सबके बावज़ूद जनता ने जो फ़ैसला किया है उसके शुभ लाभ की भागी भी वही है।
उसे न ग़लत कहा जा सकता है और न उसे उसके हाल पर छोड़ा जा सकता है। उसके फ़ैसले की मीमाँसा करना एक जन पक्षधर पत्रकार का कर्तव्य है सो हमने निभा दिया।

हम आइंदा भी उसके हक़ में लिखते,बोलते रहेंगे।

बाक़ी मर्ज़ी है आपकी क्योंकि देश है आपका।
इति।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार ,कर्मवीर न्यूज़ पोर्टल के प्रधान संपादक और गाँधीवादी कार्यकर्ता हैं।)

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