मोदित्व का चंगुल: मजबूर मीडिया के सामने खड़ा मजबूत मतदाता
पत्रकार राकेश अचल का इंडिया टीवी के शो में किसान नेता राकेश द्वारा उठाये सवालों के संदर्भ में आलेख।
मीडिया के लिए मोदित्व एक मजबूरी हो सकती है और इसके चलते भारतीय मीडिया को गाह-बगाहे वे तमाम ठठकर्म करना पड़ते हैं जो नैतिक रूप से वर्जित हैं ,लेकिन अब समय बदल रहा है। मजबूर मीडिया के सामने मजबूत मतदाता लाठी टेककर खड़ा है। किसानों के नेता राकेश टिकैत ने मीडिया की भड़ैती को सबके सामने आइना दिखाकर मतदाता की मजबूती का मुजाहिरा कर दिया है।
कोई माने या न माने उसकी मर्जी किन्तु हकीकत ये है कि अपवादों को छोड़कर भारतीय मीडिया इन दिनों मोदित्व के चंगुल में है और इसी नए तत्व के हिसाब से अभिनय कर रहा है। मीडिया में सामने दिखने वाले और पार्श्व में रहने वाले लोग देश की जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि सत्ता प्रतिष्ठान के हिसाब से अभिनय करते नजर आ रहे हैं। टीवी चैनलों के मोंटाज हों या पार्श्व के कोलाज सबके सब सत्ता प्रतिष्ठान के हितों का संरक्षण करते दिखाई देते हैं।
आजकल मीडिया देश की समस्याओं से आँखे फेर कर सियासत पर केंद्रित है। मोदित्व के शिकार मीडिया को लगता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या सियासत है और इसके लिए ही ज्यादा से ज्यादा वक्त खर्च किया जाना चाहिए। दिखाए और पढ़ाये जाने वाले मीडिया के कलेवर का विश्लेषण करके देख लीजिये सारी हकीकत आपकी समझ में आ जाएगी। मीडिया के बदले स्वरूप के चलते पिछले कुछ वर्षों में पाठक और दर्शक तेजी से कम हुए हैं लेकिन मजबूरी का नाम मोदित्व जो ठहरा।
इस समय देश में हालांकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं लेकिन चर्चा केवल उत्तर प्रदेश के चुनावों की है। उत्तर प्रदेश के चुनाव केवल राजनीतिक दल नहीं बल्कि मीडिया भी लड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के चुनाव कायदे से उत्तर प्रदेश की जनता और राजनीतिक दलों की प्रादेशिक इकाइयों को लड़ना चाहिए किन्तु ये चुनाव केंद्र की पूरी सरकार और पूरी पार्टी लड़ रही है, क्योंकि सब जानते हैं कि यदि उत्तर प्रदेश हाथ से गया तो सारा खेल खराब हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश चुनावों के वक्त मतदाता के बदलते तेवरों को देखकर सत्तारूढ़ दल और मीडिया अचानक फिर से मंदिर-मस्जिद के एक तरह से सुलझ चुके विवाद को फिर से घसीट लाया है। किसान नेता राकेश टिकैत के एक टीवी शो में भी जब मंदिर-मस्जिद दिखने की कोशिश की गयी तो टिकैत की प्रतिक्रिया देखकर प्रस्तोताओं के हाथों के तोते उड़ गए। टिकैत ने लगभग लताड़ लगते हुए कहा कि- आप किसके कहने पर मंदिर-मस्जिद दिखा रहे हो। उन्होंने टीवी चैनल पर देश को बर्बाद करने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि मंदिर-मस्जिद के बजाए, अस्पताल की तस्वीर लगाओ।
भारत की राजनीति में राकेश टिकैत एक टटका चेहरा हैं। उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों का नेतृत्व किया था, जिन्होंने महेंद्र सिंह टिकैत को देखा है वे जानते हैं कि खांटी का नेतृत्व कैसा होता है ? राकेश टिकैत इस हिसाब से खानदानी किसान नेता हैं। उनके भाई-बंधु भी किसानों के बीच काम करते हैं। यानि राजनीति की तरह उनका काम भी वंशानुगत है। राकेश टिकैत ने पिछले दिनों वापस हुए किसान आंदोलन के दौरान एक समझदार किसान नेता की भूमिका अदा की थी,उसी समय लगने लगा था कि उनके मन में राजनीति का अंकुर फुट रहा है और इसमें कोई बुरी बात भी नहीं है।
भारत की राजनीति में इस समय में जैसे लोग सक्रिय हैं उसे देखते हुए किसानों के बीच से राकेश टिकैत का आना समय की मांग है। राजनीति में इस समय धनबल,और बाहुबल का बोलबाला है इस वजह से किसान,मजदूर, बुद्धिजीवी लगभग राजनीति में प्रवेश करने के लायक ही नहीं बचते, किन्तु राकेश टिकैत को अवसर मिला है कि वे राजनीति में कुछ नया करने की कोशिश करें और वे ऐसा कर भी रहे हैं, हालाँकि वे चुनाव लड़ नहीं रहे।
उत्तर प्रदेश में किसानों का नेतृत्व कहने को चौधरी चरण सिंह के बाद उनके बेटे स्वर्गीय अजित सिंह ने सम्हाला था लेकिन वे सत्ता प्रतिष्ठान के बिना आगे न बढ़ पाने की बीमारी का शिकार होकर अपना आधार गँवा बैठे थे..उनका सारा समय दल बदलने में ही चला गया आजकल उनके बेटे जयंत सक्रिय हैं। एक तरह से वे राकेश टिकैत के प्रतिद्वंदी हैं,लेकिन वे भी राकेश टिकैत की तरह खुलकर लठैती नहीं कर पा रहे हैं। उनमें मीडिया को आईना दिखने की क्षमता शायद नहीं है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति के बहाने मीडिया से भी उसकेउसके उत्तरदायित्व के बारे में पूछा जाने लगा है। राकेश टिकैत के सवालों [ कि-‘ आपके पास इसकी क्या मजबूरी है? आप किसका प्रचार कर रहे हो? यह क्या दिखा रहा है? टिकैत ने तेज आवाज में कहा कि कैमरा और कलम पर बंदूक का पहरा है। ‘] का जबाब आना ही चाहिए। उनके सवाल किसी एक टीवी चैनल से बाबस्ता नहीं हैं, ये सवाल पूरे मीडिया से हैं और आने वाले दिनों में मीडिया को इससे भी तीखे सवालों का सामना करना पड़ेगा।
आम चुनावों की और बढ़ते देश के मीडिया के लिए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अपने ऊपर लगे तमाम दागों को धोने का एक मौक़ा है। मीडिया को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब मीडिया को देखकर लोग मुंह फेरने लगेंगे। बीते चार दशक से ज्यादा का समय मीडिया के साथ बिताने के बाद मेरा अनुभव है कि जितने बुरे दिन आज मीडिया के सामने हैं उतने बुरे दिन पहले कभी नहीं थे। पहले भी मीडिया में चारण -भाट होते थे किन्तु उनकी संख्या सीमित थी लेकिन आज तो सकल मीडिया सत्ता प्रतिष्ठान के सामने बेहयाई के साथ नतमस्तक हैं।
उत्तर प्रदेश चुनावों में बकौल टिकैत ”किसानों, बेरोजगारों, युवाओं और मध्यम वर्ग के लिए महंगाई समेत तमाम मुद्दे हैं लेकिन जिन्ना और पाकिस्तान पर नियमित बयानों के माध्यम से हिंदू-मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण की भावना भड़काने की कोशिश की जा रही है लेकिन ऐसा करने वालों का प्रयास सफल नहीं होगा बल्कि यह उन्हें नुकसान पहुंचाएगा।” और हकीकत यही है .भटकती राजनीति को ठिकाने पर लाने के लिए अकेले टिकैत को ही नहीं बल्कि भारतीय मीडिया को भी अपनी भूमिका का निर्वाह करना होगा अन्यथा लोकतंत्र तबाह हो जाएगा। ये सिर्फ दुश्चिंता नहीं बल्कि एक हकीकत है। इसे रेत में सिर देकर अनदेखा नहीं किया जा सकता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)