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किसान आंदोलन लोकतंत्र के लिए बहुत बुरे दिनों का इशारा है

सबसे लंबे समय तक चलने वाला यह आंदोलन देश ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा किसान आंदोलन (Kisan Andolan) बन गया है।
दिल्ली में 30 दिन से पहले पंजाब (Punjab) में ये किसान साथ दिन डटे रहे थे। अब यह आन्दोलन विशाल होता जा रहा है, जयपुर मार्ग पर संख्या दस हज़ार के पार है। गाजीपुर की भीड़ अब टिकरी सीमा के बराबर है, पलवल में भी हर दिन भीड़ बढ़ रही है। हजारों करोड़ का नुक्सान सरकारी और निजी व्यवसाय को हो चुका है, यही नहीं जब फसल की सेवा करने का वक्त है तब यदि किसान धरने पर बैठा है और यदि उसका असर फसल की उत्पादकता पर पड़ा तो देश की खाद्य सुरक्षा पर नया खतरा होगा।
इतने बड़े आन्दोलन, इतने भयानक नुकसान के बावजूद हुक्मरान जिस तरह इसे षड्यंत्र, सियासत या नासमझी जता कर पल्ला झाड़ रहे हैं।

वैसे तो सारे देश में किसान अपनी मेहनत, लागत और उससे होने वाली आय को लेकर निराश हैं और किसान बिल ने उन्हें विरोध करने का एक स्वर दे दिया है, लेकिन यह बात बार -बार हो रही है कि आखिर पंजाब में ही ज्यादा रोष क्यों है? यह जान लें कि कृषि बिल को ले कर किसान का असल दर्द तो यह है कि उसे अपना अस्तित्व ही खतरे में लग रहा है, शायद भारत खेती के मामले में अमेरिका का मॉडल अपनाना चाहता है जहां कुल आबादी का महज डेढ़ फीसदी लोग ही खेती करते हैं, उनके खेत अर्थात विशाल कम्पनी संचालित, मशीनों से बोने-काटने वाले, कर्मचारियों द्वारा प्रबंधित और बाज़ार को नियंत्रित करने वाले किसान, हां, उन्हें सरकार औसतन प्रति किसान सालाना 45 लाख डॉलर सब्सिडी देती है और हमारे यहा? प्रति किसान सालाना बामुश्किल बीस हज़ार, असल में किसान बिल से अलग-अलग किसानों की दिक्कते हैं और इस अवसर पर वे फूट कर बाहर आ रही हैं।

पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक वॉल से….

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