मतपत्रों की गिनती से मिले नतीजों पर मत जाइए कि भाजपा ने मध्यप्रदेश और राजस्थान के साथ-साथ अविश्वसनीय तरीक़े से छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस का सफ़ाया कर दिया है। ये नतीजे ‘असली’ नहीं हैं। ‘असली’ नतीजे यही हैं कि भाजपा पराजित हुई है। प्राप्त परिणाम बराबरी के मैदान पर ‘ईमानदारी’ से लड़े गए चुनावों के नहीं हैं जैसा कि 2018 में देखा गया था। इन चुनावों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया था और प्राणों की बाज़ी लगा दी थी। ख़ासकर मध्यप्रदेश और राजस्थान में।
तेलंगाना के परिणाम भाजपा पहले से जानती थी। भाजपा की कोशिश तो बस केसीआर की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करके वहाँ किसी भी तरह कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकने की थी। उसमें न तो उसे और न ही ओवैसी को सफलता मिली। मतदाताओं के बीच सांप्रदायिक ध्रूवीकरण कर देने की सारी कोशिशें विफल हो गईं। विश्वप्रसिद्ध मंदिरों के राज्य तेलंगाना में हिंदू आबादी 85 प्रतिशत है। तीन राज्यों में हुई हार के बाद से कांग्रेस में इतना ज़्यादा मातम छाया हुआ है कि वह ‘कोप भवन’ से बाहर निकलकर तेलंगाना की ऐतिहासिक जीत पर तालियाँ ही नहीं बजाना चाहती। कल्पना कीजिये कि अगर तेलंगाना में भी भाजपा की योजना सफल हो जाती तो क्या होता ?
पूछा जा सकता है कि चुनाव-परिणामों के निष्कर्ष क्या हैं ? निष्कर्ष केवल दो हैं : पहला तो यह कि सिर्फ़ चार राज्यों के चुनाव प्रचार में ही पीएम को अगर अपना सारा कामकाज छोड़कर इतनी ताक़त झोंकना पड़ी तो केंद्र की सत्ता में वापसी के लिए चार महीने बाद ही होने वाले लोकसभा चुनावों में मोदी क्या करने वाले हैं ? मिज़ोरम में तो पीएम ने पैर भी नहीं रखा ? कारण भाजपा ही बता सकती है !
दूसरा निष्कर्ष यह कि अगर विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच बना दिए गए थे तो ‘फ़ीनिक्स’ की तरह राहुल ने देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को तेलंगाना में राख से पुनर्जीवित करके दिखा दिया। सत्ता द्वारा जेल की देहरी तक धकेल दिए जाने के बावजूद राहुल लौटकर लड़ाई के मैदान में पहुँच गए। हिमाचल विजय के बाद पहले कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर किया और फिर उससे लगे तेलंगाना में भी कांग्रेस को शीर्ष पर लाकर दक्षिण भारत के प्रवेश के द्वार को ही भाजपा के लिए बंद कर दिया।
तीन राज्यों में विजय के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधन में दक्षिण भारत पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करने के आह्वान में पीएम की चिंता को टटोला जा सकता है। (स्मरण किया जा सकता है कि पीएम और अमित शाह ने कर्नाटक में किस तरह की मेहनत और रोड-शो किए थे।) केरल से लगाकर उड़ीसा तक छह राज्यों में लोकसभा की डेढ़ सौ सीटें हैं और भाजपा कहीं भी सत्ता में नहीं है। ममता के पश्चिम बंगाल (42 सीटें) ,नीतीश-तेजस्वी के बिहार (40 सीटें) और सोरेन के झारखंड (14 सीटें )को भी जोड़ लिया जाए तो भाजपा के लिए चुनौती लगभग 250 सीटों की हो जाती है। लोकसभा की कुल 543 सीटों में भाजपा ने पिछली बार 303 जीतीं थीं।
मध्यप्रदेश के सिलसिले में तर्क दिया गया था कि अठारह सालों से लगातार सत्ता में बने रहे के कारण शिवराज सिंह के ख़िलाफ़ क़ायम हुई ज़बर्दस्त एंटी-इंकम्बेंसी (सत्ता-विरोधी लहर) से जनता का ध्यान हटाने के लिए ही तीन केंद्रीय मंत्रियों सहित छह सांसदों और एक महासचिव को चुनाव में उतारा गया । यह तर्क इसलिए गले नहीं उतरता कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में तो भाजपा सत्ता में नहीं थीं। जब एमपी की तरह इन राज्यों में पार्टी के ख़िलाफ़ एंटी-इंकम्बेंसी का कोई कारण नहीं था तो वहाँ भी इतने भाजपा सांसदों को विधानसभा चुनाव क्यों लड़वाया गया ?
ज़ाहिर है पीएम विधानसभा चुनावों के नतीजों को लोकसभा मुक़ाबलों की रिहर्सल के तौर पर परखना चाह रहे होंगे। लोकसभा चुनाव पीएम को अपना ही चेहरा और तिलिस्म सामने रखकर लड़ना है। इसीलिए हिमाचल और कर्नाटक की तरह इन चारों राज्यों में भी उन्होंने ‘कमल’ के साथ अपने ही चेहरे को दाव पर लगाया। सांसदों को विधानसभा लड़वाकर नब्ज टटोलना चाह थे कि संघ और भाजपा के लिए रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले हिन्दी भाषी राज्यों में उनकी 2014 और 2019 वाली चमक कितनी क़ायम है (एमपी में सात में से दो सांसद विधानसभा चुनाव हार गए )। गुजरात को भी जोड़ लें तो चारों राज्यों में लोकसभा की 91 सीटें हैं। इनमें भाजपा के पास अभी 87 हैं। तेलंगाना में भाजपा के पास राज्य की 17 में से चार सीटें हैं।
मध्यप्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में लाने के लिए क्या-क्या किया गया बताना हो तो : पीएम ने कोई सवा दर्जन से अधिक यात्राएँ कीं। अमित शाह प्रदेश में ही लगभग बने रहे। करोड़ों लोगों को मुफ़्त के अनाज के साथ-साथ ‘लाड़ली बहना’ जैसी बीसियों योजनाओं के लिए ख़ज़ाने को ख़ाली कर दिया गया। ‘ज़रूरतमंद’ मतदाताओं के ‘अभावों’ को हर संभव योजना के बल पर वोटों के रूप में प्राप्त करने (ख़रीद लेने?) के टोटके आज़माए गए। संघ की पूरी ताक़त के साथ-साथ पड़ौसी प्रदेशों से बुलाकर तैनात की गई कार्यकर्ताओं की फ़ौज चुनाव में झोंक दी गई। नौकरशाही को पार्टी के साथ ‘सहयोग’ नहीं करने के परिणाम के बारे में खुले तौर पर चेतावनी दे दी गई।
कांग्रेस को हराने के प्रयासों में यह भी शामिल किया जा सकता है कि बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी द्वारा खड़े किए गये 229 उम्मीदवारों के अतिरिक्त सपा ने भी अपने 69 प्रत्याशी मैदान में उतार दिए। इनके अलावा ‘वोट काटने के लिए’ आदिवासी संगठन ‘जयस’ और भीम सेना या आज़ाद समाज पार्टी के सैंकड़ों उम्मीदवार और बीसियों निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में थे। कमलनाथ को सबक़ सिखाने के लिए अखिलेश यादवने बीस सीटों पर दो दर्जन रैलियाँ कीं। पिछले चुनाव में 37 सीटें ऐसी थीं जहां बसपा/सपा/गोंडवाना पार्टी ने हार-जीत के समीकरण बिगाड़े थे। कई स्थानों पर इन दलों के उम्मीदवार भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रहे थे।
अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को कथित तौर पर कह दिया था कि वे सपा और बसपा उम्मीदवारों की हर संभव मदद करें क्योंकि वे कांग्रेस के ही वोट काटेंगे। तीन दिसंबर के परिणामों के सूक्ष्म विश्लेषण के बाद पता चल पाएगा कि सपा/बसपा,आदि दलों और बाग़ियों ने सम्मिलित रूप से कांग्रेस का कितना खेल बिगाड़ा और उससे कितने भाजपा उम्मीदवारों को जीतने में मदद मिली।
मध्यप्रदेश में भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस की उपलब्धि उसे प्राप्त कुल सीटों (66) और वोट शेयर (40.4%) से अधिक इस बात से आंकना चाहिए कि उसका मुक़ाबला कितनी बड़ी ताक़त और उसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करने वाली निहित स्वार्थों की जमात से था। प्रधानमंत्री अगर चुनाव को 2018 की तरह ही लड़ते तो उसके परिणाम क्या तीन दिसंबर जैसे ही निकलते? क्या तब उनके और भाजपा के ख़िलाफ़ व्याप्त जनता की नाराज़गी की असली लहर का लोकसभा के पहले ही पता नहीं चल जाता ? ऐसा नहीं किया गया। जो एंटी-इंकम्बेंसी केंद्र के ख़िलाफ़ थी उसे राज्य सरकार के खाते में डालने के प्रयास किए गए पर चतुर शिवराज सिंह की ‘लाड़ली बहनों’ ने सबको बचा लिया। (पिछले साल नवंबर में हिमाचल में पराजय के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भाजपा की हार के कारणों के लिए कथित रूप से केंद्र सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया था।)
विधानसभा चुनावों के ‘अघोषित’ नतीजे यह हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत केवल तेलंगाना में ही नहीं बल्कि ‘सभी राज्यों’ में हुई है। प्रधानमंत्री को लोकसभा के लिए तैयारी नए सिरे से करना पड़ेगी । कारण यह कि विधानसभा चुनावों पर ही भाजपा इतना सब लुटा चुकी है कि मतदाताओं को देने के लिए उसके पास मंदिर, राष्ट्रवाद और ‘कन्हैयालालकी कहानी’ के अलावा कुछ नहीं बचा है ! भाजपा क्या केवल इनके दम ही दिल्ली की सत्ता में वापस आ जाएगी ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)