नई दिल्ली (जोशहोश डेस्क) देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आज (27 मई) पुण्यतिथि है। देश भर में उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी शांतिवन जाकर उनकी समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की।
कश्मीर नीति को लेकर (खासकर धारा 370) को लेकर जवाहरलाल नेहरू पर हमेशा ही सवाल उठाया जाता रहा है, लेकिन क्या धारा 370 अकेले नेहरू की देन थी? इस सवाल का जवाब पत्रकार अभिनव पांडे के ट्वीट थ्रेड में कुछ इस प्रकार है-
आरोप लगाया जाता है कि पं. नेहरू ने जम्मू कश्मीर को जानबूझ कर अतिरिक्त छूट दी (370),जबकि सरदार पटेल इसके खिलाफ थे। तो आइए सच्चाई जान लेते हैं। पहली बात तो लोगों को ये समझना चाहिए कि जब आज के गृहमंत्री 370 को निष्प्रभावी करने का प्रस्ताव संसद में पेश करते हैं तो तब के गृहमंत्री पटेल 370 लागू करने से भला कैसे दूर रहें होंगे। कॉमन सेंस की बात है।अब इतिहास में आते हैं।
बात तब कि है जब जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हो चुका था, शेख अब्दुल्ला वहां के प्रीमीयर बन चुके थे, उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और जो कहा वो बहुत महत्वपूर्ण था- हमने भारत के साथ काम करने और जीने-मरने का निश्चय किया है लेकिन भारत के साथ काम करने और जीने-मरने के इरादे के साथ-साथ कश्मीरियों की अपनी स्वायत्तता और अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप शासन का स्वप्न भी उनके लिए उतना ही महत्वपूर्ण है’।
और यही वो बिंदु था जहां से कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच अंतर्विरोधों की शुरुआत हुई। दूसरी बात ये कि जब 28 अक्टूबर 1947 को विलय हुआ तभी महाराजा हरि सिंह स्पष्ट कहा था कि ”इस विलय पत्र में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिसे भारत के किसी भावी संविधान को स्वीकार के लिए मेरी वचनबद्धता माना जाए”।
मतलब महाराजा हरि सिंह शुरू से ही जम्मू कश्मीर के लिए विशेष स्वायत्तता चाहते थे जो आगे चलकर शेख अब्दुल्ला की भी चाहत बनी। चुंकि मुस्लिम बाहुल्य होने के बावजूद भारत में शामिल हुआ था इसलिए वक्त की मांग थी कि उसके साथ नजाकत से पेश आया जाए, क्योंकि पाकिस्तान की गिद्ध दृष्टि हमेशा से बनी हुई थी ।
इस बीच 18 मई 1949 को शेख अब्दुल्ला को पं. नेहरू पत्र लिखकर कहते हैं कि- ”जम्मू कश्मीर विदेशी मामलों, सुरक्षा तथा संचार क्षेत्र में भारत के साथ जुड़ गया है। यह राज्य की संविधान सभा, जब बुलाई जाएगी तो वो तय करेगी कि और किन मामलों में राज्य भारत से जुड़ सकता है।” इसके लिए भारत की संविधान सभा में जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए 4 सीटें रखी गई।
16 जून 1949 को शेख अब्दुल्ला, मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी और मोती राम बागड़ा संविधान सभा में शामिल हुए। अगले 3 महीने तक अनुच्छेद 370 को लेकर गोपालस्वामी आयंगर, सरदार पटेल, शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों के साथ तीखी बहस हुई।12 oct 1949 को सरदार पटेल ने इसकी जरूरत को स्वीकार करते हुए संविधान सभा में कहा- ” उन विशेष समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जिनका सामना J&K सरकार कर रही है, हमने केंद्र के साथ राज्य के संवैधानिक संबंधों को लेकर वर्तमान आधार पर विशिष्ठ व्यवस्था (अनुच्छेद 370) की है।
मतलब ये कि जो अनुच्छेद 370 लंबे समय से अकेले नेहरू के माथे मढ़ी जाती है, असल में वो सरदार पटेल की उपलब्धि थी। उसे असल में सरदार पटेल ने बनाया था। जिसे पं.नेहरू का पूर्ण समर्थन था और एक सच्चाई ये भी जो बहुत कम लोग जानते हैं कि जब भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जुड़वाया गया तब पं. नेहरू भारत में थे ही नहीं। वो अमेरिका के दौरे पर थे।
सरदार पटेल का रोल और अहम तब हो जाता है जब कांग्रेस पार्टी ने संविधान सभा में 370 का पुरजोर विरोध किया। कांग्रेस पार्टी चाहती थी कि कश्मीर भी मूलभूत शर्तों के साथ भारत में शामिल हो। गोपालस्वामी आयंगर पार्टी को 370 का महत्व नहीं समझा सके, तब सरदार पटेल ने कमान संभाली और पार्टी के नेताओं को समझाने का काम बड़ी ही सफलता के साथ किया। फिर 16 Oct 1949 को 370 के मसौदे पर सहमति बनी लेकिन बड़ी ही चालाकी से संचालक गोपालस्वामी आयंगर ने बिना शेख अब्दुल्ला को विश्वास में लिए इसकी उपधारा 1 के दूसरे बिंदु को परिवर्तित कर पास करा लिया।
शेख अब्दुल्ला ने इसका विरोध किया और तब सरदार पटेल ने भी कहा ”शेख साहब की हाजिरी में सारी व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है तो उसके बाद उसमें परिवर्तन करना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है”। नेहरू जब लौटे तो पटेल ने उन्हें इसकी सूचना दी। मगर अंतत: आयंगर द्वारा संशोधित 306 A ही 370 के रूप में संविधान में शामिल हुई।
इस पर 25 जुलाई 1952 को पं.नेहरू ने मुख्यमंत्रियों के लिखे पत्र में कहा- ” जब नवंबर 1949 में हम भारत के संविधान का अंतिम रूप दे रहे थे, तब…सरदार पटेल ने इस मामले को देखा, तब उन्होंने जम्मू कश्मीर को हमारे संविधान में एक विशेष किंतु संक्रमणकालीन दर्जा दिया। इस दर्जे को संविधान में आर्टिकल 370 के रूप में दर्ज किया गया।
370 के अस्थाई दर्जे का मतलब ये था कि इसका भविष्य कश्मीर की जनता तय करेगी। अगर कश्मीर में जनमत संग्रह हुआ होता और वहां की जनता स्पष्ट मत से भारत के साथ आ जाती तो 370 का स्वरूप वहीं बदल जाता या उसकी आवश्यकता ही खत्म हो जाती। मगर ऐसा नहीं हुआ। तो अंत में ये जान लेना चाहिए कि पटेल के करीब वी.शंकर भी अनुच्छेद 370 को सरदार पटेल की सिद्धि मानते थे।
दूसरी बात ये कि जब अनुच्छेद 370 संविधान में जोड़ा गया तब नेहरू देश में नहीं थे। तीसरी ये कि नेहरू के समर्थन के बावजूद कांग्रेस का बड़ा हिस्सा 370 के खिलाफ था और चौथी ये कि पटेल ने विरोध करने वाले कांग्रेसी हिस्से को अपनी सूझबूझ से ना सिर्फ मनाने का काम किया था बल्कि संविधान सभा से पास भी कराया।
तो बराय मेहरबानी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी (WU) के चक्कर में आकर अंड-बंड बोलने से बेहतर है किताब पढ़िए। नेहरू-पटेल को लड़ाने से बेहतर राष्ट्रनिर्माण में उनके योगदान को समझिए। इसके बावजूद सिर्फ नेहरू से नफरत की वजह से उन्हें आरोपी बनाना है तो बनाते रहिए, क्योंकि हमारे जिस संविधान ने 370 जैसा अनुच्छेद दिया,वही संविधान अभिव्यक्ति की आजादी भी देता है।
सोर्स-100 से ज्यादा किताबों को समेटने वाली अशोक कुमार पांडेय की ‘कश्मीरनामा’ और पियूष बबेले की ‘नेहरू मिथक और सत्य’
नोट- यहां सबकुछ समेटना संभव नहीं,डीटेल के लिए किताब पढ़िए