नई दिल्ली (जोशहोश डेस्क) तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे प्रदर्शनों से न केवल भारत के किसान उद्वेलित हैं बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीय भी चिंतित हैं। भारत के हालातों को देखते हुए अमेरिका में रह रहे चार भारतीयों ने वहां 40 साल पहले लागू कृषि कानूनों पर बड़ी रिसर्च की है। करीब दस हजार किलोमीटर की यात्रा के बाद चारों भारतीयों की रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं वह बेहद गंभीर हैं।
रिसर्च के मुताबिक अमेरिका में 40 साल पहले आए कृषि कानूनों के बाद कृषि क्षेत्र में प्राइवेटाइजेशन होने से छोटे कृषि फार्म समाप्त हो गए। वहीं किसान पूरी तरह से बड़े एग्रीकल्चर कॉर्पोरट घरानों पर आश्रित हो गए। जिसके बाद उन्हें कम दामों में अपनी जमीन तक बेच देनी पड़ी। बड़ी संख्या में किसान खेती छोड़ फैक्ट्रियों में काम करने लगे और लोन न चुका पाने की दशा में कई किसानों को आत्महत्या तक करनी पड़ी।
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित आर्टिकल के अनुसार इन भारतीयों द्वारा की गई यह विशेष यात्रा अमेरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन द्वारा किए गए प्राइवेटाइजेशन पर केंद्रित थी। यह यात्रा लॉस एंजिल्स में रहने वाले पूर्व आईआईटी के छात्र बेदव्रत पेन, सृष्टि अग्रवाल, राजसिक तरफदार और रुमेला गंगोपाध्याय ने की है। यह सभी अलग-अलग व्यवसाय से आते हैं। 1980 के दशक में अमेरिका में भी छोटे-छोटे किसान अपने खेतों पर खेती करके अपना जीवन यापन करते थे, पर तभी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अपने प्राइवेटाइजेशन की जिद के चलते वहां पर कृषि में बड़े व्यापारिक घरानों का प्रवेश करा दिया। उसके बाद जो कानून आए उसमें लगभग छोटे कृषि फार्म समाप्त हो गए एवं छोटे किसान पूरी तरह से बड़े एग्रीकल्चर कॉर्पोरेट घरानों के सामने असहाय हो गए। इसका नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे किसानों को अपनी जमीन कम दामों में बेचनी पड़ी। वहीं 1950 के बाद से अमेरिका में किसानों की संख्या में 91 प्रतिशत की कमी हुई है। अमेरिका में जहां 1950 में 23 मिलियन किसान हुआ करते थे। आज वहां 2 मिलियन से भी कम किसान हैं।
इसका असर यह हुआ कि बड़े व्यापारिक घरानों के प्रवेश से खानें की वस्तुओं की कीमतों में 200 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा हो गया। जबकि किसान द्वारा उगाए जाने वाले अनाजों की कीमत वही रही जो कभी अमेरिका में 1865 के सिविल वॉर के समय थी। किसानों के उत्पादों से जैसे ही सरकार ने अपना समर्थन वापस लिया वैसे ही किसानों के लिए खेती करना मुश्किल हो गया।
इसके लिए उन्हें लोन का सहारा लेना पड़ा। इससे अमेरिका में किसानों पर कर्ज भी 425 बिलियन डॉलर पर पहुंच गया जो कि अब तक का सबसे अधिक है। 1950 में अमेरिका के किसानों कि खुदरा मूल्य में हिस्सेदारी 50 प्रतिशत थी जो कि अब घट के 15 प्रतिशत हो गई है। इस सब की वजह से लोन डिफॉल्ट केस में भी वृद्धि हुई है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यात्रा करने वालों ने अपने अनुभव बताते हुए लिखा है कि उन्होंने आत्महत्या की कई कहानियां सुनी। इस सब का असर इतना गहरा है कि लोन न चुका पाने की वजह से किसान तो आत्महत्या कर ही रहे हैं। वहीं कई ऐसे मामले भी हैं जहां बैंक ऑफिसर ने भी आत्महत्या कर ली क्योंकि वह बैंक करप्ट हो चुके किसानों से लोन की वसूली नहीं कर पाया।
किसानों की आय में हुई कमी से ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या में भी कमी देखी गई है। खेती के घट जाने से स्थानीय व्यवसाय में भी कमी आई है। अनाज सप्लाई करने वाली दुकानें, रिपेयरिंग कि दुकानें और यहां तक की अस्पताल भी ग्रामीण क्षेत्रों में बंद होने लगे हैं। अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में हर साल एक हजार से ज्यादा स्कूल बंद हो रहे हैं। किसानों के अनुसार उनकी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट जगत का प्रवेश करना है।
अमेरीका के 75 प्रतिशत किसान गरीबी रेखा के नीचे आते हैं। अब बिग एज द्वारा सबकुछ नियंत्रित किया जाने लगा है। अनाज के बीज से लेकर ग्रोसरी स्टोर तक कॉरपोरेट का ही कब्जा है। अमेरिका में वर्तमान में 4 ऐसी बड़ी कंपनियां हैं जो कि पूरे देश के एक तिहाई मार्केट में कब्जा की हुई हैं।
कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों का मानना है कि भारत सरकार के नए कृषि कानूनों से अधिकतर कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा। भारत में जब किसानों का आंदोलन चल रहा है तब प्रेमचंद की यह बात याद रखनी चाहिए, जिसमें उन्होंने किसानों को उनका हक दिलाने की बात ‘प्रेमाश्रम’ के पात्र प्रेमशंकर के माध्यम से कही है –‘‘भूमि उसकी है जो उसको जोते। शासक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश में शांति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिसके बिना खेती हो नहीं सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।’’