117 साल बाद कूनो में रोचक संयोग का गवाह बना सिंधिया परिवार
महाराज माधौराव सिंधिया ने 1904-05 ने दक्षिण अफ्रीका से शेर लाकर उन्हें कूनो घाटी में बसाया था
Ashok Chaturvedi
ग्वालियर (जोशहोश डेस्क) श्योपुर जिले स्थित कूनो पालपुर के घने जंगलों के भीतर ठीक 117 साल बाद रोचक संयोग आकार ले चुका है। इस इतिहास की पहला पन्ना ग्वालियर के सिंधिया राजवंश के महाराज माधौराव सिंधिया ने 1904-05 में लिखा था। अब उनकी चौथी पीढ़ी यानि ज्योतिरादित्य सिंधिया इसे दोहरा रहे हैं।
इतिहास यह है कि माधौराव सिंधिया को जूनागढ़ के नवाब ने गिर के एशियाई शेर देने से इनकार कर दिया था। तब माधौराव सिंधिया ने दक्षिण अफ्रीका से शेर लाकर उन्हें सबसे पहले कूनो घाटी के जंगलों में बसाया था। अब स्व. माधौराव की चौथी पीढ़ी के वशंज ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्रीय उड्डयन मंत्री के रूप में अफ्रीफन चीते लाकर कूनो के जंगलों में बसाने के लिए चल रही कवायद का हिस्सा हैं।
उस वक्त गिर क्षेत्र जूनागढ़ की रियासत का हिस्सा हुआ करता था। जूनागढ़ के नवाब ने ग्वालियर राजघराने के महाराज माधौराव सिंधिया के आग्रह के बावजूद शेर देने पर टाल-मटोल करते हुए दक्षिण अफ्रीका से शेर मंगवाने का सुझाव दिया था।
श्योपुर से 52 किलोमीटर दूर गोरस श्यामपुर मार्ग पर दायीं ओर के घने जंगलों के भीतर 3 किलोमीटर दूर डोब कुंड क्षेत्र में ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरे लोहे के पिंजरे मौजूद हैं। ग्वालियर रियासत के गजेटियर 1902 के अनुसार सन 1904 में लार्ड कर्जन ग्वालियर के महाराज सिंधिया के निमंत्रण ग्वालियर शिकार के लिए आए थे। वह कूनो घाटी में पालपुर के वनक्षेत्र को देखकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने ही ग्वालियर नरेश को सिंह लाकर रखने की सलाह दी। उस समय यानी 1905 में एक लाख रुपए का बजट रखा।
अफ्रीका से 10 सिंह लाए गए थे, जिसमें से तीन बंबई बंदरगाह पहुुंचते-पहुंचते कर एक थे। 7 सिंह बचे जिसमें 3 नर और 4 मादा थीं। उन्हें खुद महाराजा सिंधिया ने बंबई जाकर रिसीव किया था। अपने पालतू शेरों को नैसर्गिक वातावरण प्रदान करने के लिए 5 पिंजरे बनवाए। लगभग 20 फीट ऊंचे इन पिंजरों का द्वार लोहे की मोटी सलाखों से बना है। इसके आगे एक दीवार और बनी है। इन दरवाजों के बीच लोहे का एक सरकाने वाला दरवाजा है, इसके द्वारा शेरों को भोजन पहुंचाया जाता था।